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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [९३] तोभी सामायिकमें प्रथम इरियावही करनेका नहीं कहते हुए अपने २ बनाये ग्रंथों में सामायिकमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करनेकाखुलासा लिस्नगयेहैं, उसका भावार्थ समझबिनाही उन महाराकोंके विरुद्ध होकर सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापन करते हैं, सो उन महाराजोंके वचन उत्थापनरूप और उन महाराजोंके वि. रुद्ध प्ररूपणा करनेरूप दोषके भागी होते हैं। १६- दशवकालिकसूत्रकी टीकाके पाठसेभी इरियावही किये बिना कोई भी कार्यकरें तो अशुद्ध होताहै', इस बात परसे सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करतेहैं सो भी बडीही भू. लहै, क्योंकि यह तो जैनसमाजमें प्रसिद्धही बात है, कि-दशवैका. लिकमलसूत्रमें और उसकी टीकामे सर्वजगह साधुओंके आचार-वि चार-कर्तव्य संबंधीही अधिकार है, उसमें किसी जगहभी श्रावकके सामायिक वगैरह कार्यासंबंधी कुछभी अधिकारनहींहै, इसलिये साधुओंके गमनागमनसे जाने आनसे इरियावही करके पीछे स्वाध्याय, ध्यानादिधर्म कार्य करने बतलाये हैं, उसके आगे पीछे के संबंधवाले पाठको छोडकर अधूरे पाठसे सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापन करना सर्वथा अनुचित है. १७- श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजने आवश्यकसूत्र'की बडी टीकामें तथा श्री उमास्वातिवाचक विचित 'श्रावकप्रशप्ति' की टीकामेभी सामायिकमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही कहना खुलासा लिखा है, और इन्ही महाराजने श्रीदशवकालिकसूत्रकी टीकाभी बनाया है, इसलिये इन्हीं महाराजके नामसे दशवैकालिकसूत्रकीटीकाके पाठसे प्रथम इरियावही स्थापन करनेसे इन महाराजके कथनमें पूर्वापर विरोधभाव विसंवादरूप दोषकी प्राप्ति होतीहै,इसलिये इनमहाराज के अभिप्राय विरुद्ध होकर अधूरे पाठसे सामायिक संबंधी खोटा अर्थ करके विसंवादका झूठा दोष लगाना बडी भूल है. यह महारा. जतो विसंवादी नहीं थे. मगर संबंध विरुद्ध आग्रह करनेवालेहीप्रत्यक्ष मिथ्या भाषणसे बालजीवोंको उन्मार्गमें गेरनेके दोषी ठहरतेहैं. १८ - श्रीदेवेंद्रसूरिजी महाराजने 'श्राद्धदिनकृत्य'सूत्रकीवृत्तिमें प्र थम करेमिभंते पीछे इरियावही खुलासा लिखाहै, तथा धर्मरत्न प्र. करणकी वृत्तिमें तो-वाचना,पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा व धर्मक. थारूप पांचप्रकारकीस्वाध्यायकरने संबंधी अधिकारमें सिर्फ परावर्त नारूप (शास्त्रपाठ पढे हुए फिरसे याद करने रूप)स्वाध्याय करनेके For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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