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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१० ] ना होवे, तथा भगवान् उपर और गुरुमहाराज उपर लोगोंकी श्रद्धा बढे, बहुत जीवोंको धर्म प्राप्तिका महान् लाभ होवे, इसलिये घरसे सामायिक लेकर नंगे पैरप्से पैदल इरियासमितियुक्त आनेके बदले बडे आडंबरसे गुरुपास आकर पीछे सामायिक करें. . २१ - राज्यऋद्धिकी सोभा युक्त गुरुपास आकर जो नजदीक भगवान्का मंदिर होवे तो पहिले वहां मंदिरमें जाकर विधिसहित उपयोग युक्त भावसे- केशर चंदनादिसे पहिले द्रव्य पूजा करें बाद पीछे चैत्यवंदन स्तवनादिसे भाव पूजा करें उसके बादमे गुरु पास आकर “यथासंभवं साधु समीपे मुस्खपोतिका प्रत्युपेक्षणपूर्व" अर्थात्- स्त्रमासमणपूर्वक मुहपत्तिकापडिलेहणकरके सामायिक संदिसाहणे वगैरहके आदेश लेकर ऊपर मुजब विधिसे पहिले करेमिभंतेका उच्चारणकरके पीछे इरियावही पूर्वक स्वाध्यायादि करें. ____२२- राजादिक सामायिक करें तब तक राज्यचिन्ह मुकुटादिकको अलग रखें, त्याग करें. २३-इसप्रकार सामायिक करनेवाले वहां विकथादि कर्मबंधन केहेतुभूत कोई भी कार्य न करें, किंतु स्वाध्याय ध्यानादि कोकीनिजराके हेतुभूत धर्मकार्य करनेमें अपना समय व्यतीत करें, इत्यादि, ३४- अब देखिये-ऊपर मुजब सर्वमान्य प्राचीन शास्त्रपाठोपर विवेक बुद्धिसे तत्त्व दृष्टिपूर्वक विचार किया जावे तो सामायिक करनेके लिये प्रत्येकवार स्त्रमासमण सहित 'सामाइय मुहपत्ति पडिले. हेमि' 'सामाइयंसंदिसावेमि' 'सामाइयंठावेमि' इत्यादि वाक्योंसे सामायिक करनेका आदेश लेकर नवकारपूर्वक विनयसहित 'करेमिभंते ! सामाइयं' इत्यादि संपूर्ण सामायिकका पाठ उच्चारण कियेबाद पीछेसे इरियावही करनेका सुस्पष्टतासे साफ खुलासा पूर्वक सब शा. त्रकार सर्व गच्छोंके पूर्वाचार्योंने लिखा है, सो अल्प बुद्धिवालामी ऊपरके शास्त्र पाठोपरसे सामायिकका अधिकारको अच्छी तरहसे समझ सकताहै. जिसपरभी ऊपरकी तमाम सर्व बातोंको छोडकर " ऊपरके शास्त्रपाठ आलोयणा संबंधी हैं, या स्वाध्याय संबंधी हैं, वा वंदनासंबंधी हैं, अथवा सामायिक संबंधी हैं. इसकी हमको अ. च्छी तरहसे मालूम नहीं पडती, इसलिये ऊपरके शास्त्र प्रमाणोंसे सामायिक प्रथम करेमि भंत और पीछे इरियावही कैसे किया जा वे?" ऐसी २ कुतर्क जान बुझकरके या उपरके शास्त्रपाठीको घांचे, विचारे, समझे बिनाही परंपराकी अज्ञानतासे करते हैं, सो तोश्री. For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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