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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१०४] शानीजीमहाराज जाने. मगर ऐसी २ कुतर्क करके जिनाशानुसार प्रत्यक्ष अनेक शास्त्र प्रमाण मुजब सत्य बात परसे भोले जीवोंकी श्रद्धा उडादेते हैं, और जिनाशाविरुद्ध कोईभी शास्त्रप्रमाण बिनाही अपने झूठे हठवादके आग्रहकी बातको स्थापन करनेकेलिये शास्त्रोंके सत्य२ पाठोपरभी झूठी शंका लाकर उत्सूत्र प्ररूपणासे उन्मार्ग को पुष्ट करते हैं, सो यह काम संसार बढानेवाला अनर्थ भूत होनेसे आत्मार्थी भवभिरुयोंको तो करना योग्यनहींहै. इसविषयको विशेष तत्त्वक्ष पाठक गण स्वयं विचार लेवेगे. ३५-कितनेक कहतेहैं,-'सामायिकमें प्रथम करोमिभंते और पीछे इ. रियावही करनेसंबंधी आवश्यक सूत्रकी चूर्णि-बृहद्वृत्ति वगैरह शास्त्रपाठोंमें सामायिकमुहपत्ति पडिलेहणके, सामायिक संदिसाहणेके, सामायिक ठाणेके आदेशलेनेवगैरह सबपी विधिनहींहै,ऐसा कहनेवालेभी प्रत्यक्षही मिथ्या भाषण करके जिनाज्ञाका उत्थापन करतेहैं, क्योंकि देखो-धावकधर्म प्रकरणवृत्ति तथा वंदित्तासूत्रकी चूर्णि व. गैरह शास्त्रपाठोमें सामायिक मुहपत्ति पडिलेहणके,सामायिक संदि. साहणेके, सामायिकठाणेवगैरहके आदेशलेकर नवकारपूर्वक विनय. सहित 'करेमि भंते' इत्यादि पाठ उच्चारण करके पीछेसे इरियावही किये बाद स्वाध्यायादि करनेका संक्षेपमेभी साफ बतलायाहै, उसके भावार्थमें गुरुगम्यतासेसामायिक सब पूरीविधि समझना चाहिये. ___३६-आवश्यक नियुक्ति, उत्तराध्ययनादि शास्त्रों में सामान्यतासे संक्षेपमें प्रतिक्रमणकी विधि बतलायाहै,परंतु उसका विस्तारपूर्वक विशेष अधिकार भावपरंपरानुसार पूर्वाचार्योंके सामाचारियोंके ग्रंथोसे जाननेमे आताहै, और उसी मुजबही अभी प्रतिक्रमणकी सर्व क्रियायें करनेमें आतीहैं.मगर कोई अज्ञानी आवश्यकनियुक्ति-उत्तरा. ध्ययनादिशास्त्रोंकी प्रतिक्रमण विधिको अधूरी कहकर निषेधकरें और र उसकेविरुद्ध ढूंढियोंकी तरह अपनी मतिकल्पना मुजब प्रतिक्रमण की विधिको स्थापन करें, तो आवश्यकादि आगमार्थरूप पंचांगीके उत्थापनसे उत्सूत्रप्ररूपणारूप मिथ्यात्वके दोषके भागी होनापडताहै, तैसेही- आवश्यक चूर्णि, बृहवृत्ति वगैरह ऊपरमुजब शास्त्रपा. ठोमें सामायिक संबंधीभी सूचनारूप संक्षेपमें सामान्यतासे शास्त्रका र महाराजोन सामायिककी विधि लिखीहै. उसका विस्तारसे विशेप अधिकार भावपरंपरानुसार पूर्वाचायाँके सामाचारियोंके गंथा. से जानना चाहिये और उसी मुजबही आत्मार्थी भव्य जीवोंको सा. For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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