SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२१] तो सर्व पूर्वाचार्योंकी आशातनाके तथा शासनकी लघुताके दोषके भागी होवें । इसीतरह जैनपंचागभी प्राचीन पूर्वाचायाँके समयसे विच्छेद होनेसे,अभीफिरसे शुरू नहीं होसकता.जिसपरभी कोई फि रसे शुरू करें तो२०वे दिन पर्युषणापर्व करनेकी, व पांच पांच दिने अज्ञात पर्युषणास्थापन करने वगैरह बातें जो विच्छेद होगईहैं, वे सब बातेभी जैन टिप्पणाशुरू होनेसे पीछीशुरू करनी पडेगी, और वे सर्व बातें अभी पडताकाल होनेसे फिरसे शुरू नहीं होसकती हैं, इस लिये अभी जैन पंचांग शुरू नहीं होसकताहै। १९- अभी लौकिक दो श्रावणादिक महीनोंके; अपने दो आषाढ बनासकें या नहीं? कितनेक कहते हैं,कि-लौकिक टिप्पणा श्रावण भाद्रपद बढ़े तब जैन शास्त्रोंके हिसाबसे दो आषाढ बनालेंवे तो पर्युषणाका भेद मिट जावे मगर ऐसाभी कभीनहीं होसकता. क्योंकि देखो-जब जैन पंचांगही अभी विच्छेद है,और तिथि,वार,नक्षत्र पक्ष मासादि पंचांग संबंधीव्यवहार लौकिक टिप्पणा मुजब करतेहैं, जिसपरभी१ महीनेका फेरफार करदेना योग्यनहींहै । देखिये-दो श्रावण होनेसे भरपूर वर्षाऋतुवाला प्रथम श्रावणशुदी १५ को प्रत्यक्षप्रमाणसेभी विरुद्ध होकर उसकोआषाढ पूर्णिमाकहना यहजगत विरुद्ध होनेसे व्यवहा. मेंभी मिथ्याभाषणका दोषलगे। औरपहिले पूर्वाचार्योंनेभीप्साकभी नहीं किया, इसलिय अभी दो श्रावण या दो भाद्रपदके, दो आषाढ बनाना कभी नहीं बनसकताहै, किंतु लौकिक टिप्पणामुजब दो श्रावण भाद्रपदादि सर्वगच्छोंके पूर्वाचार्यपहिलेसे जैसे मानते आये हैं, वैसेही वर्तमानमें अपने सबकोभी मान्य करना योग्यहै बस! धार्मिः क व्यवहार पर्युषणपर्वादि कार्य जैन सिद्धांतोंके अनुसार ५०वे दिन करने. और तिाथ, वार, नक्षत्र, चंद्रयोग, मास, पक्षादि व्यवहार लौकिकटिपपणाकअनुसार करना.यहीन्याय युक्तियुक्त व सर्वसम्मत होनेसे सर्व जैनीमात्रको मान्य करना योग्य है, इसलिये इसमें अन्य २ कल्पनायें करनी सर्वथा व्यर्थही हैं। २०-पर्युषणा कितने प्रकारकी होती हैं ? निशीथचूर्णि,बृहत्कल्पचूर्णि, कल्पसूत्रनियुक्ति,चूर्णि, वृत्तिवगैरह शास्त्रों में पर्युषणाके नामांतसे ८ प्रकारसे अनेक भेद बतलाये हैं, मगर यहां तो अभी मुख्यतासे वर्षास्थितिरूप और वार्षिक कार्यरूप For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy