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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३५ ] जिनप्रभसरिजी कृत श्रीविधिप्रपा समाचारी ग्रन्थके पाठ को नही माननेवालोंको मिथ्या दृष्टि ठहराते हैं परन्तु आप जैन० मा० पु० के' पृष्ठ३८ में इन्ही महाराज कृत उन्ही ग्रन्थके पाठको नही मानते हुये द्वेषबुद्धिसे आक्षेप करके शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक सत्य बात परसें भोले जीवोंकी श्रद्धाभङ्ग करनेका कारण किया हैं सो भी उत्सूत्र भाषण है इसका भी विस्तार 'आत्म० के' पृष्ठ १९१ के अन्तसे पृष्ठ ११५ तक छपगया है। १४ चौदहमा-श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी परम्परानुसार श्रीजिनदास महचराचार्यजी पूर्वधर महाराजने श्रीआवश्यकजी सत्रकी चूर्णिमें श्रावकके नवमा सामायिक व्रतमें सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पीछेसे इरियावही खुलासे लिखी हैं जिसको श्रीजिनाज्ञाके आराधक सबी आत्मार्थी श्रीजैनाचार्यादि महाराजोंने श्रद्धापूर्वक प्रमाणकरी है और श्रीहरिभद्रसरिजी, श्रीदेवगुप्तसूरिजी, श्रीअभयदेवसरिजी, श्रीयशोदेवसरिजी, श्रीहेमचन्द्राचार्यजी, श्रीविजयसिंहाचार्यजी, श्रीदेवेन्द्रसूरि जी, श्रीतिलकाचार्यजी, श्रीलक्ष्मीतिलकसूरिजी, श्रीकुलमण्डनसूरिजी, श्रीरतशेखरसूरिनी, श्रीमानविजयजी (कृत वृत्ति शुद्ध कर्ता श्रीयशोविजयजी) आदि महाराजोंने अपने अपने बनाये ग्रन्थों में सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिझते पीछे इरियावही खुलासे लिखी है उसी मुजब मोक्षाभिलाषी आस्मार्थी प्राणियोंको श्रद्धापूर्वक मन्जूर करनी चाहिये तथापि न्यायाम्मोनिधिजी जैन ना' पु० के पृष्ठ ४१-४२में पूर्वधर महाराजकृत श्रीआवश्यक चूर्णिके पाठ पर और For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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