SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५९] आत्मार्थी विवेकी तत्त्वज्ञ पाठक जन स्वयं विचार सकते हैं। छ कल्याणक संबंधी ऊपरके संक्षिप्त लेखसेभी जो आत्मार्थी सत्य ग्रहण करने वाले निकट भव्य होंगे, वह तो थोडेसे मेंही सार स. मझ लेवेगे,कि गर्भापहारको अलग भव गिननेसे तथा त्रिशलामाताने सर्व तीर्थकर माताओंकी तरह आकाशसे उतरते हुए १४ महास्व. प्रदेखने वगैरह कार्योसे दूसराच्यवनरूप कल्याणकपनेकी उत्तमताको छुपाकरके व्यर्थही छठे कल्याणककी निंदाकरना सर्वथा योग्यनहींहै और शास्त्रोकेअर्थ बदलकरके उत्सूत्रप्ररूपणासे व कुयुक्तियोंसे भोले जीवोंकोभी उत्तम कार्य के हेतुभूत गर्भापहारकी निंदा करवाने वाले बनवाकर तीर्थकर भगवानकी आशातनासे भवहार जानका कारण कराना कदापि योग्य नहींहै । ऊपरकी इन सब बातोंका विशेष नि: र्णय शास्त्रोंके संपूर्ण पाठोंके प्रमाणासहित इस ग्रंथके पृष्ट ४५३ से. ८२६ तक छप चुका है, सो तीसरे भागमें प्रकट होगा.उसके बांचनेसे सर्व शंकाओका खुलासा समाधान अच्छी तरहसे होजावेगा। और शासन नायक श्रीमहावीरस्वामि आदि सर्व तीर्थकर म हाराजोके चरित्र भव्यजीवोंको काँकी निर्जरा करानेवाले कल्या. णकारक मंगलरूपही हैं, इसलिये पर्युषणाके मंगलिक पर्व दिनों में आत्मकल्याणके लिये वांचने आतेहैं.और श्रीमहावीरस्वामिक गर्भापहाररूप दूसरा च्यवनका कार्य तो त्रिशलामाता, सिद्धार्थपिता, व इंद्रमहाराज वगैरह सर्व जीवोंको कल्याण मंगलरूप हर्षका देने वालाहुआहै। तथा उनका आराधन करनेवाले अल्पसंसारी आत्मार्थी भव्य जीवोंकोभी अभिमानरहित कर्मोकी विचित्रताकी भावनासे कर्मोकी निर्जरा करानेवाला कल्याणकारक मंगलरूपहोता है। मगर गर्भापहारके नाम सुननेमात्रसेही चमकउठनेवाले और उनको नीच गौत्रविपाकरूप,आश्चर्यरूप अतीवनिंदनीककहकरनिंदाकरनेवालोंकों तीर्थकरभगवानके अवर्णवाद बोलनेसेसंसारपरिभ्रमणके बहुतविशेप दुःख भोगनेबाकी होगे,इसलिये उन्होंकों वो कार्य अमंगलरूप अ. कल्याणरूप मालूमपडता होगा। इससे उनकार्यसे द्वेषरखकर वर्षोंवर्ष पर्युषणाके मांगलिकरूप कल्याणकारक पर्वदिनोंके व्याख्यानमें उनकी निंदा करते हुए अकल्याणरूप अतिनिंदनीक ठहराकार तीर्थकर भगवानकी आशातना करनेसे अपनेको और दूसरे भव्य जी. वोकभी अकल्याणरूप दुर्लभबोधिका हेतुकरतेहैं, ऐसी २ अनर्थभूत अनुचित बातोसेही 'सुबोधिका' नाम रख्खाहै । मगर वास्तविक में For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy