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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [६] तो 'दुर्लभबोधिका' नाम सिद्ध होताहै । इसबातको विशेष आत्मा. र्थी तत्त्वज्ञ पाठकगण स्वंय विचार लेवेगे। एक बात उत्थापन करनेसे अनेक बातें उत्थापन करनी पड़ती हैं। देखो एक अधिकमहीना व छ कल्याणक उत्थापनकरनेसे उसकी पुष्टिकेलिये, अनेक शास्त्रोके अर्थबदलनेपडे । अनेक जगह शास्त्रकार महाराजोंके अभिप्राय विरुद्ध आग्रह करना पडा । कितनीही जगह मिथ्या बातें भी लिखनी पडी। कितनीक जगह शास्त्रोके आगे पीछे के संबंधवाले पाठोंको छोडकर बिनासंबंधक अधूरे २ पाठभी भोले जीवोंकों बतलाकर अपनापक्षकी सत्यता बतलानेका परिश्रम करना पडा और कितनीही जगहतो शास्त्रोकी, पूर्वीचार्योंकी व भगवानकीभी आशातनाके हेतुमूत अनुचित शब्दभी लिखने पडे. उसकाअनुभवतो सुबोधिक-किरणावलीआदिककी२८भूलोंवाले ऊपरकेलेखसे तथा इसभूमिकाके सबलेखपरले और इस ग्रंथके अवलोकन करने से पाठकगणको अच्छी तरहसे होसकेगा, इसलिये 'एक बात उत्थापन करनेसे अनेक बाते उत्थापन करनी पड़तीहै' यह लोकरूढीकी कहावतकी बात ऊपरके विषयमें प्रत्यक्ष देखनेमें आती है। इसप्रकार पर्युषणासंबंधी, व छ कल्याणक संबंधी अपना झू. ठा पक्ष स्थापन करनेकेलिये और भोले जीवोंको उन्मार्गमें गेरनेके. लिये, शास्त्र विरुद्ध होकर विनयविजयजीने सुबोधिकामे, तथा जयविजयजीने दीपिका, और धर्मसागरजीने किरणावलीमें, ऊपर मुजब अनेक भूले की है, उन्हीं भूलोको तपगच्छके कितनक आनही जन पर्युषणाके व्याख्यानमें वर्षोवर्ष वांचते हैं. उससे जिनाज्ञा. की विराधनाहोकर भवबढनेका व दुर्लभबोधिका हेतुभूत अनर्थ हो. ताहै. इसलिये अल्पसंसारी भव्यजीवोंको जिनाशानुसारसत्यबातोंकी प्राप्ति होनेरूप उपकारकेलिये उपरकी सब बातोंका खुलासा निर्ण. य इसग्रंथमें अच्छीतरहसे लिखने में आया है । उसको देखकर यदि शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणासे संसार परिभ्रमणका भय लगता हो तो उन भूलोको सुधारो, व्याख्यानमें वांचेनका बंध करो, और सत्यबातोको ग्रहण करो या बडोदा वगैरह किसीभी राज्य दरबारमें इन भूलोसं. बंधी श्रीगौतमस्वामिआदि गणधरमहाराज व सिद्धसेनदीवाकर, ह. रिभद्रसूरिजी वगैरह महाराजौकी तरह सत्य ग्रहण करने की प्रति For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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