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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५८ ] math ४ कल्याणकही रहजावेंगे और नीचगौत्रके विपाकरूप तथा आश्चर्यरूप कहते हुए भी प्रथम च्यवनको कल्याणकपना मानोगे, तोtraits विपाकरूप और आश्चर्यरूप कहकर दूसरे च्यवनरूप गभी पहारको कल्याणकपने रहित ठहराया सो प्रत्यक्षमिथ्या व्यर्थही झूठा आग्रह सिद्ध होवेगा. इसलिये ऐसे झूठे आग्रहसे भोले जीवोंको संशयरूप मिथ्यात्व के भ्रममें गेरकर भगवानकी आशातनाका हेतुभूत अनर्थ करना सर्वथा योग्य नहीं है. किंतु प्रथम च्यवनमें कल्याणक पना मानने की तरहही दूसरे व्यवनमेंभी कल्याणकपना आगमादि शास्त्रप्रमाण तथा युक्तिसम्मत होनेसे आत्मार्थियोंकों अवश्यही मान्यकरना उचित है, इसको विशेष तत्त्वज्ञजन स्वयंविचारसकते हैं । औरभी प्रत्यक्ष शास्त्रप्रमाण देखिये - कल्पसूत्रकी सर्व टीकायै वगैरह बहुतशास्त्रों में श्रीजंबूस्वामिके निर्वाणगयेबाद दश (१०) वस्तु विच्छेद होनेका लिखा है. उसमें केवलज्ञान, केवलदर्शन, यथाख्यातचारित्र, मुक्तिगमन वगैरह बातोंकोभी वस्तु कहा है. और 'गुणस्थानक्रमारोह' वगैरह शास्त्रोंमें भी केवलज्ञान उत्पन्न होनेको, तथा मुक्तिगमनको १३-१४ वा गुणस्थान कहा है. इसी तरहसे इन शास्त्रप्रमाण मुजब भी तीर्थंकर भगवानके केवलज्ञान उत्पन्न होनेको तथा मुक्तिगमन निर्वाणको वस्तु कहो या स्थान कहो और उन्होंकोही केवलज्ञान तथा निर्वाण कल्याणकभी मानो, तो भी इस बात में कोई तरहका वि रोधभाव नहीं है, इसलिये च्यवनादिकोंको वस्तु कहो, या स्थान कहो, वा कल्याणककहो, सबका तात्पर्यार्थ से भावार्थ एकही है. जिस परभी वस्तु स्थान कहकर कल्याणकपनेका निषेध करनेवाले अपनी अज्ञानता से शास्त्र विरुद्ध प्ररूपणा करके भोलेजीवोंको उन्मार्गमें गेरते हैं, और अपनी आत्माकोभी उत्सूत्र प्ररूपणा के दोष से मलीन करते हैं. इसबातकोभी विवेकी तत्त्वज्ञजन स्वयं विचार सकते हैं । और तीर्थकर भगवानके च्यवनादिकों कों कल्याणकपना आगमानुसार अनादिसिद्ध है, उन्हीं च्यवनादिकों कों शास्त्रों में एक जगह स्था न कहे, दूसरी जगह वस्तु कहे, तीसरी जगह कल्याणक कहे, इससे - भी वस्तु-स्थान-कल्याणक यह तीनों शब्द पर्यायवाचक एकार्थवाले सिद्ध होते हैं जिसपरभी वस्तु-स्थान शब्द देखकर अनादिसिद्ध च्य. वनादिमें कल्याणक अर्थको उडादेना सो अपने झूठे पक्षपातके आग्र हसे शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करनेरूप यह कितनी बडी भूल है इसको For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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