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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २२३ ] चातुराईके साथ उत्सत्र भाषणकी बाते प्रगट किवी है और ऐसेही गाडरीया प्रवाहवत् उसी बातोंकों वर्तमानमें न्यायरत्नजी जैसे भी लिखते हैं परन्तु तत्त्वार्थको जरा भी नही विचारते हैं क्योंकि श्रीविनयविजयजी वगैरह चारो महाशयोंने कालचूलाके नामसे अधिक मासकों गिनतीमें नही लेनेका शास्त्रकारों के विरुद्धार्थमे ठहराया है जिसकी समीक्षा अच्छी तरहसे इन्ही पुस्तकके पृष्ठ ५८सें यावत् पृष्ठ २९६ तक उपरमें छप चुकी है सो पढ़नेसे सर्व निर्णय हो जावेगा तथापि श्रीविनयविजयजी कृत श्रीसुखबोधिकाके अनुसार अपनी अपनी चातुराइसैं विशेष कुयुक्तियांके विकल्प उठा करके भोले जीवोंको भ्रममें गेरनेके लिये न्यायरत्नजी वगैरहने पृथा परिश्रम किया है उन कुयुक्तियांका समाधान युक्तिपूर्वक लिखना यहां सरू है जिसमें न्यायरत्न जीने श्रीकल्पसूत्रकी टीकाका पाठ श्रीधिनयविजयजी कृत दिखाया सो उत्सत्र भाषणरूप होनेसे मैंने उसीकी समीक्षा तो पहिलेही कर दिखाई है इसलिये श्रीविनयविजयजीकृत उत्सूत्र भाषण रूप उपरके पाठकों म्यायरत्नजीको लिखना भी उचित नही है और पक्षग्राहियोंके सिवाय आत्मार्थी पुरुषोंकों मान्य करना भी उचित नही है याने सर्वथा त्यागने योग्य है सो उपरके लेखसे पाठकवर्ग भी अच्छी तरहसें विचार लेना ; और आगे फिर भी अधिक मासको गिनती में नही लेनेके लिये न्यायरत्नजीने अपनी चातुराईको प्रगट करके लिख दिखाई है कि ( अगर लिया जाता हो तो पर्युषणा पर्व दूसरे वर्ष श्रावणमें और इस तरह अधिक महिनोंके For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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