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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३२८ ] पृष्ठ ४८ के मध्यमें तुच्छ शब्दसें लिखके ( शास्त्रों की तथा शास्त्रकार श्रीपूर्वधरादि महाराजोंकी आशातना करके ) निषेध करी हैं सो भी उत्सूत्र भाषण है इसका विस्तार आत्म०के' पृष्ठ २२५ से छपना सरू है। ___२१ एकवीशहमा-श्रीजैनशास्त्रोंमे सर्व जगह सानायिक सम्बन्धी प्रथम करेमिभंते करनेकी एकही विधि है तथापि न्या० ने जैन ना० पु. के पृष्ठ ४८ अन्तमें सामायिक सम्बन्धी पूर्वापर विरोधी दो विधि स्थापन करी हैं सो भी उत्सूत्र भाषण है उसका निर्णय 'आत्मभ्रमोच्छेदन - भानुः' नामा ग्रन्थमें छपमा सरू है। ऊपर मुजब २१ प्रकारके उत्सूत्र भाषण न्यायाम्भोनिधि जीने सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापन करनेके लिये लिखे हैं और कितनी जगह मायावृत्तिरूप, कितनीही जगह प्रत्यक्ष मिथ्या, कितमीही जगह अन्याय कारक, कितमीही जगह श्रीजैनशास्त्रोंके अतीव गहनाशयको समके बिना उलटा भी लिख दिया है इत्यादि अनेक तरहके अनुचित लेखों करके सामायिक में प्रथम हरियावही ( श्रीजैनशास्त्रोंके तथा श्रीजैनाचार्योंके विरुद्ध) स्थापनेके लिये अपने तथा अपने पक्षधारियोंके संसार वृद्धि के निमित्त भूत खूबही परिश्रम किया है उसीके सबका निर्णय देखने की इच्छा होवे तो 'आत्मभ्रमोच्छेदनानुः' में शास्त्रार्थपूर्वक युक्ति सहित अच्छी तरहसे होगया है सो पढ़नेसे सर्व खुलासा हो जावेगा-और पर्युषणासम्बन्धी यह ग्रन्थ प्रसिद्ध होये बाद थोड़ेही दिनोंमें 'आत्मचमोच्छेदनभानुः' भी प्रगट होनेका सम्भव है। For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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