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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५२] ऐसाउस चैत्यवासीनी बुढियाका क्रोधसहित अनुचित वर्तावकोदेख कर; यद्यपि श्रावकलोग उसको दरवाजेसे हटाकर मंदिर दर्शन करनेको जासकतेथे, तो भी स्त्रीकेसाथ वैसा करना योग्य न समझकर महाराजके साथ पीछे अपने स्थानपर चले आये. इत्यादि 'गण धर सार्धशतक' बृहद्वृत्ति वगैरहमें श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज के चरित्रसंबंधी पूर्वापरके आगे पीछे के प्रसंगको,व चितोडके निवा सी चैत्यवासियोंके विरोधभावको, विवेकी बुद्धिसे समझे बिनाही अथवा तो जान बुझकर आगे पीछके संबंधको छुपाकरके कितनेक लोग कहतेहैं, कि-'श्रीजिनवल्लभसूरिजीने चितोडनगरमें छठे कल्याणककी नवीन प्ररूपणाकरी तब उनको बुढियाने मना किया था तोभी मानानहीं.'ऐसाकहनेवाले अपनी अज्ञानताकोही प्रकटकरते हैं, क्योंकि देखो-वो चैत्यवासीनी बुढिया अज्ञानी आगमोके भावार्थको नहीं जाननेवालीथी,तथा शिथिलाचारी होकर अपनी आजीविकाके लिये चैत्यमें ठहरकरके चैत्यकी पैदाससे अपना गुजरान करती थी और श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज चैत्यमें [मंदिरमें रहनेका, तथा उसकी पैदाससे अपनी आजीविका चलाने का निषेध करने वालेथे, और शास्त्रानुसार व्यवहार करने वाले शुद्ध संयमीथे. इसलिये चि. तोडके सब चैत्यवासियोंकी तरह वह बुढियाभी महाराजसे विशे. ष द्वेष धारण करने वाली थी. और बुढियाके जन्म भरमेभी उसके सामने कोईभी शुद्ध संयमी चैत्यवासका निषेध करनेवाला चितोड नगरमे पहिले कभी नहीं आयाथा. उससेही शास्त्रानुसार विधिमा. नकी बातोंकी उसको मालूम नहीं थी. इसलिये इन महाराजका आगमानुसार छठे कल्याणकका कथनभी उस बुढियाको नवीन मालू. म पडा. और अपने चैत्यनिवासकी तथा उससे अपनी आजीविका चलानेकी बातका खंडन करने वाला और अपनी शिथिलाचारकी भूलोको प्रकट करनेवाला, ऐसा अपना विरोधी अपने ताबेक मंदिरमें अपने सामने चला आवे; सो उस बुढियासे सहन नहींहोसका. इसलिये क्रोधसे मंदिरके दरवाजे पर आडी पड गई, सो उस निर्विवेकी अज्ञानी क्रोधसे विरोध भावको धारण करनेवाली बुढियाके कहनेसे प्रत्यक्ष आगम प्रमाण मौजूदहोनेसे छठा कल्याणक नवीन कभी नहीं ठहर सकता.जिसपरभी उस बुढियाके अज्ञानताजनक व. चनोंका भावार्थ समझे बिनाही उस चैत्यवासीनी बुढियाकी परंपरावाले अभी वर्तमानमेंभी कितनेक आग्रही जन अज्ञानतासे बुढियाकी For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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