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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५१ ] athी आज्ञा लेकर वहांही ठहरे. उनके संयमानुष्ठान, जप, तप, ध्यान, धैर्य, ज्ञानादिगुण देखकर देवी भी प्रश्न होकर जीवहिंसा छोडकर, जी. वदया पालनेवाली व महाराजकीभक्ति करनेवाली होगई. और शहर वालेभी पुण्यवान् भव्यजीव जिनाशानुसार सत्यधर्मकी परीक्षाकरनेको वहां महाराजकेपास थोडे२ आनेलगे. और अन्य दर्शनियों में भी महाराज के विद्वत्ताकी बडी भारी प्रसिद्धि होनेसे बहुत लोग अपना संशय निवारणकरने केलिये महाराजकेपास आनेलगे, शहरभर में बहुत प्रसंशा होने लगी, तब कितनेक गुणग्राही श्रावक लोगभी महाराज को गीतार्थ, शुद्ध संयमी और शास्त्रानुसार विधिमार्ग की सत्यबातें बतलानेवाले जानकर, चैत्यवासियोंकी शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणाकी तथा चैत्यकी पैदास से अपनी आजीविका चालने की स्वार्थी कल्पितबातोंको छोडकर महाराज केपास शास्त्रानुसार सत्यबातोंकों ग्रहण करने वाले होगये । पीछे महाराजका चौमासाभी वहां करवाया, तब तो महाराज चैत्यवासियों की शिथिलता और अविधिको खूब जोरशोर से निषेध करने लगे और जिनाशानुसार विधिमार्ग की सत्यबातें विशेपरूप से प्रकाशित करने लगे, उसको देखकर बहुत भव्य जीव चैत्यवासियोंकी मायाजाल से छुटकर शास्त्रानुसार क्रिया अनुष्ठान करने लगे. तब तो चैत्यवासी लोग महाराज ऊपर बहुत नाराज होगये और अपनी शास्त्रविरुद्ध भूलोको सुधारने के बदले पांचसौ चैत्यवासी इकट्ठे होकर लकडीयें वगैरह हाथमें लेकर महाराजको मारनेके लिये आये, इसबात की अच्छे २ आगेवान श्रावकोंद्वारा चितोडनगरके राजाको मालूम पडनेसे महाराज ऊपरका यह उपसर्ग वहांके राजाने दूर किया, चैत्यवासी लोग बहुत द्वेष करतेथे और नगर भरके सबमंदिर चैत्यवासियोंके ताबेमें थे. उस अवसर में महाराज श्रावकों के साथ श्रीमहावीरस्वामीके दूसरेच्यवन कल्याणकसंबंधी आसोजवदी १३को चैत्यवासियोंके मंदिर देववंदनादि करनेको जानेलगे, तब पहिले के विरोधभाव के कारणसे राज्यमानआगेवान् बहुतश्रावकले ग साथमैथे, इसलिये चैत्यवासीलोगतो कुछभी बोलसके नहीं, मगर एक चैत्यवासीनीबुढिया अपने स्त्रीजाती के तुच्छस्वभाव से अपने गच्छकेआश्रित भगवान् के मंदिर के दरवाजेपर आडी सोगई और क्रोधसे बोलने लगी कि- 'पहिले ऐसा कभी हुआ नहीं और यह अभी करते हैं, सो मेरे जीवतेतो मंदिर में नहीं जाने दूंगी; मेरेकोमारकर पीछे भले अंदरजावो For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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