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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१५] ८० देन व १०० दिन के धर्म-कर्म समय २ के श्वासोश्वासके हिलाब से सर्वज्ञ भगवान् के प्रवचनानुसार अनादिमर्यादा मुजब मान्य करेंगे, तो - ८० दिन के ५० दिन, व १०० दिन के ७० दिन कहने का आग्रह झूठाही ठहरजावेगा. यहभी न्यायबुद्धि से विचारने योग्य है, विशेष क्या लिखे. देव द्रव्य निर्णयः । १ - वर्तमानिक देवद्रव्यकी चर्चा संबंधी अर्पण बुद्धिसे भगवानको चढाई हुई वस्तु देव द्रव्यमें गिनी जाती है, यह बात सर्वमान्य है, इसी तरहसे पूजा और आरती की बोलीभी अर्पण बुद्धिसे पहिले सेही संघ तरह से भगवान्को चढाई हुई वस्तु हैं, अर्थात् देवद्रव्यमे जानेका नियम होचुका है, उनको अन्य मार्ग में ले जाने से बिनाकार संघकी आज्ञा भंगका व भगवान्को अर्पण की हुई वस्तु रूपांतर से पीछी लेनेका दोष आता है, इसलिये ऐसा करना योग्य नहीं है। २- भगवान् की पूजा आरति की बोली कलेश निवारण करनेके लिये नहीं है, किंतु शुद्ध भक्ति के लिये है, देखो - अपने अनुभवसे यही मालूम होता है, कि बहुत भाविक जन आज अमुक पर्व दिवस है, मैरी शक्तिके अनुसार आज १०।२० या १०० २०० रुपये भगवान की भक्ति के लिये देवद्रव्य में जावें तोभी कोई हरज नहीं है, मगर आज तो भगवान्की पहिली पूजा-आरति मैं करूं, तो मैंरे कल्याण-मंगल हवे, वर्षभर भगवान की भक्ति में जावें, इसी निमित्तसे मैरा द्रव्य भगबानकी भक्ति में लगेगा. तो मैरी कमाईभी सफल होवेगी, और सुकृत की कमाईवालेभाग्यशालीको आज भगवान्की भक्तिका पहिला लाभ मिलेगा ऐसा कहने में भी आता है. इत्यादि शुभभाव से बोली बोलते हैं, इस लिये कलेश निवारणकेलिये बोली बोलनेका ठहराना योग्य नहीं है. औरभी देखो - भगवान् के मंदिर बनवाने व प्रतिमा भरवाने में महानू लाभ कहा है, यह कार्य भक्तिकेलिये धर्म बुद्धिसे करने की शास्त्राशा है. तोभी कितने बेसमझलोग नामकेलिये या अभिमानसे वा देखा देखी के विरोधभावले करते हैं, सो यह अनुचित है. इसी तरहसे बोली बोलनेका रीवाजभी भगवान् की भक्ति के लिये महान् लाभका हेतु है, तो भी कितनेक बेसमझ लोग नामकेलिये या अभिमानसे वा देखादेखी के विरोध भाव से बोलते हैं. उनको देखकर बोली बोलने के रीवाजको भक्ति राग छोडकर कलेश निवारणका हेतु ठहराना योग्य नहीं है. तथा देवद्रव्यकी तरह साधारण द्रव्यकी भी बहुतही आवश्यकताहै, उसमें बेदरकारीका दोष मुनिमंडल व आगेवानोंपर है. ओ. For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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