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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १४ ] नियोकों आलोयणा लेने का कहा है, और अभी श्रावणादिमहीने बढ़ें. तब पांच महीनोंके दश पक्ष १५० दिन वर्षाकालके होते हैं, उसमें आयंबिल, उपवास, नवकरवाली गुणने वगैरह से जितने दिन धर्मकार्य होंगे: उतनेही दिन आलोयणाकी गिनती में आवेंगे, इसी तरहसे वर्षी और छ मासी तपके दिनों में व ब्रह्मचर्य पालने वगैरह कायमै भी अधिक महीने के ३० दिन गिनती में आते हैं । इस हिसाब से धर्मकार्य में व कर्म बंधन के व्यवहारमें सूर्यके उदय अस्त (रात्रि दिनके) परिवर्तनके हिसाब से और अंग्रेजी, मुसलमानी, पारसी, बंगलाकी तारिख के हिसाब से भी आषाढ चौमासीसे जब दो श्रावण होवै: तब भाद्रपद तक, या जब दो भाद्रपद होवे तब दूसरेभाद्रपद तक ८० दिन होते हैं, उसके ५० दिन कहते हैं, और जब दो आसोज होंवे तब कार्तिक तक१०० दिन होते हैं, उसकेभी ७० दिन कहते हैं. यहबात संसार व्यवहारके हिसाब से, रात्रिदिनके जाने के ( समय के प्रवाह के) हिसाब से, धर्म शास्त्रोंके हिसाब से, ज्योतिषपंचांग के हिसाब से, राज्यनीति के हिसाबसे, और धर्म-कर्मके अनादि नियमके हिसाब से भी सर्वथा विरुद्ध है. और अन्य दर्शनियोंके विद्वानोंके सामने जैनशासनको कलंक रूपहै. इसलिये मेहेरबानी करके बहुत समयकी गच्छ परंपराकी रूढीरूप प्रवाहके आग्रहको छोडकर जिनाशाका विचार करके यह अनुचित रीवाजको वगर बिलंब से सुधारने की कौशिश करें. इसके संबंध में स बातोंका खुलासापूर्वक समाधान इस ग्रंथकी भूमिकाके ४७ प्रक रण व सुबोधिकादिककी २८ भूलोंवाले लेखमें और इस ग्रंथ में अच्छी तरह से लिखने में आया है, उसको पूरेपूरा अवश्यवांचे और योग्य लगे उतना सुधाराकरें, पक्षपात झूठा आग्रह शास्त्रविरुद्ध बहुत लोगों की समुदाय व गुरुगच्छकी परंपरा हितकारी नहीं है, किंतु जिनाज्ञाही हित कारी है. परोपदेशकेलिये बहुत लोगबडे कुशल होते हैं, मगर वैसाही कार्य करनेवाले आत्मार्थी बहुत ही अल्प होते हैं, यहभी आपजानते ही है. और सर्वज्ञ शासन में कर्मबंधन व धर्मकार्य संबंधी समय २ का व श्वासोश्वासका हिसाब किया जाता है, उसमें ८० दिनके ५० दिन और १०० दिनके ७० दिन कहनेवाले, यदि कसाई व व्यभिचारी वगैरह पापप्राणियों के कर्मबंधन और साधु मुनिमहाराजोंके व ब्रह्मचारी वगैरह धर्मी प्राणियों के कर्मक्षयकरने संबंधी भी ८० दिन के ५० दिन, व १०० दिन के ७० दिन कहेंगें, तब तो सर्वज्ञ भगवान् के प्रवचन - की व धर्म-कर्मकी अनादिमर्यादा भंग करनेके दोषी ठहरेंगे, अथवा For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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