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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१८] चंद्र और अभिवद्धित इन दोनों वर्षों का स्वरूप गणित प्रमाण सर्व शास्त्रों में समानरूपसे खुलासापूर्वक होनपरभी १२ महीनोंके वर्षको प्रमाणभूत मानना और १३महीनोके वर्षको स्वरूप बतलानेका बहाना बतलाकर प्रमाणभूत नहींमानना.यह तो प्रत्यक्षही अन्यायहै, यदि १३ महीनोंका स्वरूप बतलाने का कहकर गिनती में प्रमाणभूत नहीं मानोगे, तो १२ महीनोकामी स्वरूप बतलाया है, उसकोभी गिनती. में प्रमाणभूत नहीं मानसकोगे.और शास्त्रामे तो १२ या १३ महीनों के दोनों वर्षोंके समानरूपसे स्वरूप बतलाकर गिनती में प्रमाणभूत माने हैं.इसलिये दोनोंप्रकारके वर्षमाननेयोग्यहै, इसमें शास्त्रप्रमाणसे तो एकभी वर्षका निषेध नहीं होसकताहै. देखिये - ११ अंग व १४ पूर्वादिशास्त्रोंमें जैसे,दर्शन-ज्ञान-चारित्र-चौदहराजलोक-पद्र व्य-नवतत्त्व-चौदहगुणस्थान-जीवाजीवादि पदार्थोंका स्वरूप व चरणकरणानुयोगमे संयमके आराधनकी क्रियाका स्वरूप बतला. या है, वोही सर्वमान्य करनेयोग्य है, इसलिये स्वरूप बतलाना सो. ही श्रद्धापूर्वक मान्य करने योग्य सत्यप्ररूपणा कही जाती है। जिसपरभी चरणकरणानुयोगमें संयमकी क्रियाका व षद्रव्य - नवत. स्वादिकका स्वरूप बतलाया है, मगर उस मुजब मान्य करना कहां लिखाहै,ऐसा कोई कहे और उनोको प्रमाणभूत नहींमाने तो ११अंग व१४पूर्वोके उत्थापनकरनेका प्रसंग आनेसे अनेक भवोंकी वृद्धि कर नेवाली उत्सूत्र प्ररूपणाका दोष आवे. इसी तरहसेही१३ महीनोंका स्वरूपकहकर प्रमाणभूत नहीं मानेतो सूर्यप्रज्ञप्तिवगैरहपूर्वोक्त शास्त्रों के उत्थापनकरने का प्रसंग आनेसे उत्सूत्र प्ररूपणा ठहरतीहै । और जैसे-षद्रव्य, नवतत्त्वादिकके स्वरूप शास्त्रों में कहेहैं. उसमुजबही मानने पडतेहैं । तैसेही १२ महीनोंके स्वरूपकी तरह; १३ महीनों कास्वरूपभी शास्त्रोंमें बतलायाहै, उस मुजबही १३ महीनेगिनती में प्रमाणभूत माननेपडते हैं.इसलिये १३ महीनोंके अभिवर्द्धित वर्षका स्वरूप बतलायाहै,मगर मान्यकरना कहां लिखाहै' ऐसी उत्सूत्रप्ररूपणा करना. और भोले जीवोंको संशयमें गेरना आत्मार्थी भवभीरओंको योग्य नहीं है। १७ - लौकिक अधिकमहीना मानना; या नहीं? कितनेकमहाशयकहते हैं,कि जैनटिप्पणातो पौष और आषाढ दो महीने बढतेथे और अबलौकिकटिप्पणामतो श्रावण भाद्रपदादिमही नेभी बढने लगेहैं सो कैसे माने जावे? इसपर इतनाही विचार कर For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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