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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २१३ ] जीवोंके सत्यबातकी श्रद्धारूपी सम्यक्त्व रत्नको, हरण करके मिथ्यात्व बढ़ाते है तैसेही श्रीअनन्त जिनेश्वर भगवानों का कहा हुवा तथा प्रमाण भी करा हुवा अधिकमासको गिनतीमें निषेध करनेके लिये, आप लोग भी अधिकमासकी अनेक प्रकारसे जिन्दा करते हुए अनेक कुतर्को करके भोले जीवोंके सत्य बातकी श्रद्धारूपी सम्यक्त्व रत्नका हरण करके मिध्यात्व बढ़ाते हो इसलिये श्रीजैनशासन के निन्दक मिथ्यात्वी ढूंढियांका सरणा आपही लेते हो । २ दूसरा - श्रीजैनशास्त्रोंमें नाम, स्थापना, द्रव्य, और भाव, यह चारोंही निक्षेपे मान्य करने योग्य, उपयोगी कहे हैं तथापि ढूंढिये लोग उत्सूत्र भाषणका भय न करते अनन्त संसारकी वृद्धि कारक, स्थापनादि निक्षेपोंको निषेध करके बिना उपयोग के ठहराते हैं तैसेही श्रीजैनशास्त्र में द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावसें, चारोंही प्रकार की चूलाका प्रमाण गिनती करने योग्य, उपयोगी कहा है और गिनती में भी लिया है तथापि आप लोग उत्सूत्र भाषण का भय न करते कालचूलादिका प्रमाणको गिनती में निषेध करके प्रमाण नही करते हो सो भी ढूंढियांका सरणा आपही लेते हो । ३ तीसरा -ढूंढिये लोग 'मूलसूत्र मानते हैं मूलसूत्र मानते हैं' ऐसा पुकारते हैं परन्तु अपनी मति कल्पनायें अनेक जगह शास्त्रों के पाठोंका उलटा अर्थ करते हैं और अनेक शास्त्रोंके पाठोंको तथा अर्थको भी छुपाते हैं और शास्त्रों के प्रमाण बिना भी अनेक कल्पित बातोंको करके मिथ्यात्व में फसते हैं और भोले जीवोंको फसाते हैं तैसेही आपलोग भी 'पञ्चाङ्गी मानते हैं पञ्चाङ्गी मानते हैं' ऐसा ३५ For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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