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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २७२ ] और न युद्धारम्भ करना चाहा है-तथापि श्रीवल्लभविजयजीने मिथ्या लिखा यह बड़ाही अफसोस है परन्तु 'सतीको' भी वेश्या अपने जैसी समझती है तद्वत् तैसेही छठे महाशयजीने भी निर्दोषी श्रीबुद्धि नागरजीको दोषित ठहरानेके लिये अपने कृत्य मुजब सूर्पनखाके समानका तथा ढूंढियांका सरणा लेनेका और युद्धारम्भ करने का मिथ्या आक्षेप करा मालूम होता है क्योंकि उपरके कृत्य छठे महाशयजी मेंही प्रत्यक्ष है सोही दिखाता हूं; जैसे-सूर्पनखा दोनुं पक्षवालोंको दुःखदाई हुई तैसेही छठे महाशयजी (श्रीवल्लभविजयजी) भी दोनुं गच्छवालोंके आपतका संपको नष्ट करनेके लिये वाद विवादसे झगड़ेका मूल लगाके दोनुं गच्छवालोंको तथा अपने गुरुजनोंके नामको और अपने सम्प्रदायवालोंको भी दुःखदाई हुवे है इस लिये मेरेको भी इस ग्रन्थ की रचना करके आठों महाशयोंके उत्सूत्र भाषणके कुतोंकी ( शास्त्रानुसार और युक्तिपूर्वक ) समीक्षा करके मोक्षाभिलाषी सज्जनोंको सत्यासत्यका निर्णय दिखाने के लिये इतना परिश्रम करना पड़ा है सो इस ग्रन्थको पढ़नेवाले विवेकी मध्यस्थ पुरुष स्वयं विचार लेवेंगे ;____ और छठे महाशयजी आप लोग अनेक बातोंमें ढूंढियां का सरणा ले कर उन्हें काही अनुकरण करते हो जिसमें से थोडीसी बातें इस जगह दिखाता हूं; १ प्रथम-श्रीजिनेश्वर भगवान्की प्रतिमाजीको मानने पूजनेका निषेध करनेके लिये ढूंढिये लोग अनेक प्रकारको श्रीजिनमूर्तिकी निन्दा करते हुए अनेक कुतों करके भोले For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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