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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३४८ ] और भी अधिक मासको गिनती में प्रमाण करने सम्बन्धी अनेक शास्त्रों के प्रमाण आगे भी लिखने में आवेंगे उसीके अनुसार और कालानुसार युक्तिपूर्वक श्रीजिनाज्ञाके आराधन करने वाले आत्मार्थियोंको अधिकमासकी गिनती निश्चय करके प्रमाण करनी चाहिये तथापि सातवें महाशयजी अभिनिवेशिक मिथ्यात्वको सेवन करते हुवे श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञा उत्थापन करके पञ्चाङ्गीके मूलमन्त्ररूपी प्रत्यक्ष पाठोंको जानते हुवे भी अलग छोड़ते हैं और श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजों की आज्ञानुसार पञ्चाङ्गी के प्रत्यक्ष प्रमाणों सहित कालानुसार और सत्य युक्तिपूर्वक अधिकमासकी गिनती प्रमाण करते हैं जिन्होंको भूठे ठहराकर मिथ्या दूषण लगा करके निषेध करते हैं इसलिये शास्त्रानुसार अधिक मासको प्रमाण करने वालोंकी वृथाही निन्दा करके श्रीजिनाज्ञासपी सत्यधर्मकी अवहेलना करनेवाले भी सातवें महाशयजी है। ३ तीसरा-श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने (श्री आचाराङ्गजी सूत्रकी चूलिकाके मूलपाठमें तथा श्रीस्थानाङ्ग जी सूत्रके पांचवें ठाणेके मूलपाठमें और श्री कल्पसूत्रके मूल पाठ वगैरह) पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रों के मूलमन्त्ररूपी पाठोंमें चरम तीर्थङ्कर श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकों को खुलासापूर्वक कहे हैं (इसका विशेष निर्णय शास्त्रोंके पाठों सहित आगे लिखने में आवेगा) इसलिये श्रीजिनाज्ञाके आराधक पञ्चाङ्गी के शास्त्रोंकी श्रद्धावाले आत्मार्थी पुरुषों को प्रमाण करने योग्य है तथापि सातवें महाशयजो अभिनिवेशिक मिथ्यात्व सेवन करते हुवे ऊपरोक्त शास्त्रों के पाठोंकी मूलमन्त्ररूपी For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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