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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३४९ ] जानते हुवे भी अलग छोड़ते हैं और पञ्चाङ्गीके ऊपरो. कादि अनेक शास्त्रों के अनुसार श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकों को मानने वालोंको झूठे ठहराकर मिथ्या दूषण लगा करके निषेध करते हैं इसलिये भी शास्त्रानुसार श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकों को माननेवालोंकी वृथाही निन्दा करके श्री जिनाज्ञारूपी सत्यधर्मकी अवहेलना करने वाले भी सातवें महाशयजी है। ४ चौथा-श्रीआवश्यकजी सूत्रकी चूर्णि और हत्ति वगैरह पञ्चांगीके अनेक शास्त्रोंमें सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये पीछे इरियावहीका प्रतिक्रमण खुलासापूर्वक कहा है सोही श्रीजिनाज्ञाके आराधक आस्मार्थी पुरुषोंको प्रमाण करने योग्य है तथापि सातवें महाशयजी अभिनिवेशिक मिथ्यात्व सेवन करते हुवे ऊपरोक्त शास्त्रों के पाठोंको मूलमन्त्ररूपी जानते हुवे भी अलग छोड़ करके उसीके विरुद्ध बालजीवोंको कराते हैं-देखिये षड़ावश्यक करने के लिये मूलमन्त्ररूपी श्रीआवश्यकजी है उसीकी चूर्णि और हवृत्तिके अनुसार उभयकाल ( सांम और सवेर दोन वख्त ) षड़ावश्यकरूपी प्रतिक्रमण करनेका मंजर करते हैं तथापि उसी शास्त्रोंमें सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये पीछे इरियावही करना कहा है उसीको मंजर नही करते हैं जिन्होंको मूलमन्त्र रूपी श्रीआवश्यकादि पञ्चाङ्गीके शास्त्रोंकी श्रद्धाधाले श्री. जिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी कैसे कहे जावे और उन्हेंाके षडाश्यवक भी कैसे सार्थक होगे सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने और विशेष आश्चर्यकी बात तो यह For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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