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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २६८ ] गिनती अनादि स्वयं सिद्ध है जिसका खण्डन करके और श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महान् धुरन्धराचार्थ्यांनें और श्री खरतरगच्छ के तथा श्रीतपगच्छ के भी पूर्वाचाय्यने श्रीवीरप्रभुके, छ कल्याणक अनेक शास्त्रों में खुलासा पूर्वक कहे हैं तथापि आप लोग श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजों की और अपने पूर्वजों की आशातनाका भय न करते उन्ही महाराज के विरुद्ध हो करके, छ कल्याणकका निषेध करते हो और श्रीखरतरगच्छवालोंके ऊपर मिथ्या कटाक्ष करते हुए अनेक बातोंका टंटा खड़ा करनेका कारण करनेवाले आप जैसे अनेक कटीबद्ध तैयार है और अपने संसार वृद्धिका भय नही रखते है इस बात को इसीही ग्रन्थको संपूर्ण पढ़नेवाले विवेकी सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे और इसका विशेष विस्तार इसीही ग्रन्थके अन्त में भी करने में आवेगा वहां श्रीखरतरगच्छवालोंकी कैसी सरलता है और श्रीaurच्छवाले आप जैसोंकी कैसी वक्रता है जिसका भी अच्छी तरहसें निर्णय हो जायेंगा। और आगे फिरभी छठे महाशयजीनें लिखा है कि ( उनमें - अर्थात्, तपगच्छके खरतरगच्छके आपसमें- -फरक पड़नेसें कुछ दबे हुए जैनशासनके वेरियोंका जोर हो जानेका सम्भव है ) इस लेख पर भी मेरेको इतनाही कहना पड़ता है कि छठे महाशयजी श्रीवल्लभविजयजी आप श्रीखरतरगच्छके तथा श्रीतपगच्छके आपसमें विरोध बढ़ाकर संपको नष्ट करना नही चाहते हो और दोनुं गच्छको संपसें मिले जुलेसें रहने की जो आप अन्तर भाव से इच्छा रखते हो तबतो श्रीजनाज्ञा मुजब अनेक महत् शास्त्रोंके प्रमाण For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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