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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २८१ ] और इसके आगे दम्भप्रियजी श्रीवल्लभविजयजीने अपने लेखके अन्त में जो लिखा है उसीको यहां लिखके ( पीछे उसीकी समीक्षा कर ) दिखाता हूं; [ बुद्धिसागर मुनिजी ! याद रखना वो प्रमाण माना जावेगा, जो कि-तुम्हारे गच्छके आचार्यों से पहिलेका होगा मगर तुम्हारेही गच्छके आचार्यका लेख प्रमाण न किया जावगा ! जैसाकि तुमने श्रीजिनपति सूरिजीकी समाचारीका पाठ लिखा है कि, दो श्रावण होवे तो पीछले प्रावणमें और दो भाद्रपद होवे ती पहिले भाद्रपदमें पर्युषणापर्वसांवत्सरिक कृत्य-करना ! क्योंकि, यही तो विवादास्पद है कि, श्रीजिनपतिसूरिजीने समाचारीमें जो यह पूर्वोक्त हुकम जारी किया है कौनसे सूत्रके कौनसे दफे मुजिव किया है हां यदि ऐसा खुलासा पाठ पञ्चाङ्गीमें आप कही भी दिखा देवें कि, दो श्रावण होवे तो पीछले श्रावणमें और दो भाद्रपद होवे तो पहिले भाद्रपद में --सांवत्सरिक प्रतिक्रमण, केशलुच्चन, अष्टमतपः, चैत्यपरिपाटी, और सर्वसंघके साथ खामणाख्य पर्युषणा वार्षिक पर्व करना, तो हम माननेको तैयार है !] जपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि-हे सज्जन पुरुषों छठे महाशयजी दम्मप्रियेजीके अन्तरमें कपट भरा हुवा होनेसे ऊपरका लेख भी कपटयुक्त लिखा है क्योंकि (बुद्धिसागर मुनिजी याद रखना वो प्रमाण माना जावेंगा जो कि तुम्हारे गच्छके आचार्यों में पहिले का होगा) यह अक्षर छठे महाशयजीके मायावृत्तिसे दूष्टिरागी भोले जीवोंको दिखाने मात्रही है नतु प्रमाण For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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