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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ७९] विज्ञापन नं ०९ न्यायरत्नजी शांतिविजयजी हार गये ! सत्याग्राही पाठकगणसे निवेदन किया जाता है, कि-न्यायरत्नजी शांतिविजयजी को पर्युषणा बाबत सभामै शास्त्रार्थ करनेके लि ये मैंने विज्ञापन नं ७ वें में सूचना दीथी, उसमें १५ दिनके भीतर शास्त्रार्थ करना मंजूर न करोंगे, तो आपकी हार समझी जावेगी, यह बात खुलासा लिखीथी, और वैशाख शुदी १०को विज्ञापन नं. ७-८ के साथ १ पत्रभी उनको डाक मारफत रजिष्टरी द्वारा 'ठाणे 'भेजाथा, उसमें १५ दिनकी जगह २० दिनका करार लिखाथा, उसको आज २२ दिन होगये, तोभी न्यायरत्नजीने शास्त्रार्थ करना मंजूर नहीं किया और वैशाख शुदि १३ को फिरभी दूसरा पत्र भेजाथा उसमें हमने ठाणेमेही शास्त्रार्थ करना मंजूर कियाथा. उसकाभी कुछभी उत्तर न मिला और लेखद्वारा शास्त्रार्थ शुरू करनेके लिये प्रतिज्ञापत्र व साक्षी वगैरह नियमभी प्रगटनहीं किये. इससे मालूम होता है, कि-न्या रत्नजीमें न्यायानुसार धर्मवादका शास्त्रार्थकरनेकी सत्यतानहीं है, इसलिये चुप लगाकर बैठे हैं, उससे वो हारगये समझे जाते हैं, पाठकगणको मालूम होनेके लिये दोनों पत्रोंकी नकल यहां बतलाते हैं. प्रथम पत्रकी नकल " श्रीमान् न्यायरत्नजी शांतिविजयजी, विज्ञापन नं० ७-८ भेजता हूं, लघुपर्युषणा निर्णय के सत्य सत्य लेख छोडदिये, और मैरे अभिप्रायविरुद्ध उलटा उलटाही लिखमारा, वैसा अब न करना, सबका पूरा उत्तर देना, आजसे १५-२० दिन तकमें, वैशाख शुदी १० सोमवार, हस्ताक्षर मुनि मणिसागर. " दूसरे पत्रकी नकल " श्रीठाणा मध्ये न्यायरत्नजी शांतिविजयजी योग्य श्रीमुंबईसे मुनि मणिसागरकी तरफसे सूचना. १- आप ठाणेमें शास्त्रार्थ करना चाहते हो तो, हम ठाणे आनेकोभी तैयार हैं, मगर विज्ञापन नं० ६ की ३-४-५ सूचना मुजब नियम मंजूर करो और कल्पसूत्रकी कौम २ प्राचीन टीका आप मानते हो, उत्तर दो, ठाणेकी कोटवाली में शास्त्रार्थ होगा. २- शास्त्रार्थ आपका और मैरा है, इसमें मुंबई के सब संघको व आगेवानोंको बीचमें लाने की कोई जरुरत नहीं है, आप संघको arat order लिखो या कहो यही आपकी कमजोरी है, न सब संघ बीचमै पढे और न हमारी पोल खुले, ऐसी कपटता छोडो, For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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