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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [७८] और गिनतीमेंभी लियाहै, देखो लघुपर्युषणाके पृष्ठ २५ में. इसलिये शिस्त्ररको चोटी कहना और गिनतीमें छोड देना बडी भूल है ॥३॥ इसीतरहसे अधिकमहीनेमें धर्म, ध्यान, व्रत, पञ्चख्नान, तप, जप, चौमासी, पर्युषणा, कल्याणकादि धर्म कार्य निषेध करना ॥४॥ वर्तमानिक श्रावण, भाद्रपद, आश्विन बढनेपरभी समवायांग सूत्रवृत्ति कारका अभिप्राय को समझे बिनाही पीछे ७० दिन ठहरनेका आग्रह करना ॥५॥ श्रावण-पोष बढनेपर एक महीनेमें कल्याणिक मा. ननेसे दूसरे महीनेको छुटनेका कहकर अधिकमासके ३० दिन उ. डादेना ॥ ६॥ दो आषाढ होनेपर प्रथम आषाढको कालचूला ठहराना ॥७॥ दूसरे आषाढमें चौमासी करनेसे प्रथम छुट जानेका कहना ॥ ८॥ और नवतत्व- षट् द्रव्यके स्वरूपकी तरह चंद्र और अ. भिवर्द्धित दोनो वर्षोंका समानही स्वरूपकहाहै, तथा दोनोंसेही मास-पक्ष-तिथि-वर्ष वगैहरका व्यवहार चलता है, तिसपरभी दिनोंकी गिनतीके विषय में दिन प्रतिबद्ध पर्युषणाकी चर्चा में विषयांतर करके मास व ऋतु प्रतिबद्ध कार्योंको दिखलाकर अधिक मासके दिन गिनतीमें छोड़ देना ॥९॥ अधिकमास आनेसे ५० वें दिन पर्युषणा पर्वकरनेको जैनशास्त्रसे खिलाफ ठहराना॥१०॥और पंचाशक पूर्वापर संबंधवाले संपूर्ण सामान्य पाठको छोडकर शास्त्रकार महाराजके अभिप्रायको समझेबिना थोडासा अधूरा पाठ भोलेजीवोंको दिखलाकर, वीरप्रभुके विशेषतासे आगमोक्त छ कल्याणकोंका निषेध करना ॥ ११ ॥ और सुबोधिकाकी तरह समयसुंदरोपाध्यायजी कृतकल्पलतामें खंडन मंडनका विषय संबंधी कुछ भी अधिकार नहीं है. तो भी झूठा दोष आरोप रखना ॥ १२ ॥ इत्यादि अनेक बातें आपकी दोनों किताबों में शास्त्रविरुद्ध व प्रत्यक्ष मिथ्या और बालजीवोंको उन्मार्गमें गेरनेवाली भरीहुई हैं, उसका लेख द्वारा या सभामें निर्णय करनेको तैयार हो जाईये, मगर झूठेको क्या प्रायश्चित देना वगैरह नियम होने चाहिये. वीर निवाण२४४४, विक्रमसंवत १९७५, वैशाख वदी १२, हस्ताक्षर-मुनि-मणिसागर, लालबाग, मुंबई. उपर मुजब छपाहुआ विज्ञापन न्यायरत्नजीको पहुंचाया,मगर उसमें लिखेप्रमाणे सभामें आकर शास्त्रार्थ करनेका मंजूर नहीं किया तथा इन विज्ञापनमें बतलाई हुई उत्सूत्र प्ररूपणारूप अपनी भलोको सुधारनेकाभी प्रकट नहीं किया, और शास्त्रप्रमाणसे साबित करके भी बतला सके नहीं. सर्वथा मौनकर बैठे, तब हमने उनकी हारका विज्ञापन छपवाकर प्रकाशित कियाथा, सो नीचे मुजब हैः For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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