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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३८२ ] अधिक मासको मानने वालोंके मतमें तो अधिक मात होने से पांच मासहोते भी चार मास कहनेसे पांचषा अधिक मासका प्रायश्चित्त बाकी रह जाता है इसलिये अधिकमास होनेसे पाँच मास जरूर बोलने चाहिये सो तो बोलतेही हैं इसका विशेष निर्णय अपरमें हो गया है, परन्तु पाँच मास होते भी चार मास बोलने से पाँचवा अधिक मासका प्रायश्चित्त उसीके अन्तर्गत आजानेका ऊपरके अक्षरोंसें सातवें महाशयजीने अपने मतमें ठहरानेका परिश्रम किया है सो कोई भी शास्त्र के प्रमाण बिना प्रत्यक्ष मायावृत्तिसें मिथ्यात्व बढ़ाने के लिये अज्ञ जीवोंको कदाग्रहमें गेरनेका कार्य किया है क्योंकि अधिक मास होनेसे पांचमासके दश पक्ष प्रत्यक्ष में होते हैं और खास सातवें महाशयजी वगैरह भी सब कोई अधिक मासके कारणसे पाँच मासके दश पाक्षिकप्रतिक्रमण भी करते हैं फिर पांचमास दश पक्ष नहीं बोलते हैं सो यह तो 'मम वदने जिहा नास्ति' की तरह बाललीलाके सिवाय और क्या होगा से विवेकी सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे;__ और आगे फिर भी सातवें महाशयजीने पर्युषणा विचारके पाँचवें पृष्ठ की प्रथम पंक्तिसे छट्ठी पंक्ति तक लिखा हैं कि ( अब लौकिक व्यवहार पर चलिए लौकिक जन अधिक मासमें नित्यकृत्य छोड़कर नैमित्तिककृत्य नहीं करते जैसे यज्ञोपवीतादि अक्षयतृतीया दीपालिका इत्यादि, दिगम्बर लोग भी अधिक मासको तुच्छ मानकर भाद्रपद शुक्लपञ्चमी से पूर्णिमा तक दश लाक्षणिक पर्वमानते है) ऊपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि हे सज्जन पुरुषों - श्रीजिनेन्द्र भगवानोंने तो अधिक For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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