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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ११० ] दुपघातिक कर्मापगमतो निर्मलीभवनं दर्शनविशुद्धस्तां जनयति" ऐसा कहकर सामान्यतासे सामायिक, चउवीसत्थो, वंदन, प्रतिक्रमण, काउसग्ग आदि कर्तव्योंका फलबतलाया है. मगर वहां सामायिक करने की विधि में प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते उच्चारण करनेका नहीं बतलाया. इसलिये उत्तराध्ययन सूत्रवृत्ति के नाम से प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करने वालों की बडी भूल है. ४४- अब आत्मार्थी तत्रग्राही पाठकगण से मैरा यही करना है, कि - श्रीमहानिशीथसूत्रका उद्धार श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजने किया है । श्रीदशवेकालिकसूत्रचूलिकाकी बडी टीकाभी इन्हीं महाराजने बनाया है, तथा आवश्यक सूत्र की बडी टीकाभी इन्हीं महाराजने बनाया है । श्रावक प्रज्ञप्तिकी टीकाभी इन्हीं महाराजने बनाया है, अब देखो आवश्यक बडीटीका में व श्रावकप्रज्ञप्तिटीका में सामायिक विधिमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करनेका खुलासापूर्वक पाठ है तथा महानिशीथ सूत्र के तीसरे अध्ययनमें उपधान चैत्यवंदन संबंधी इरियावही करनेका पाठ है, और दशवैकालिक चूलिकाकीटीकामै साधुके गम नागमन संबंधी इरिया वही करके स्वाध्यायादि करने का पाठहै, इसलिये भिन्न२ अपेक्षावाले इन शास्त्रपाठों के आपस में किसीतरहकाभी विसं वाद नहीं है, और विसंवादी शास्त्रोको व विसंवादी कथन करनेवालौको शास्त्रों में मिथ्यात्वी कहे हैं । इसलिये जैनशास्त्रोंकों व पूर्वाचायको अविसंवादी कहने में आते हैं, इसी तरह श्री हरिभद्रसूरिजी महाराजभी अविसंवादी होने से इन्हीं महाराज के बनाये ऊपरके सर्व शास्त्रोको अविसंवादी कहने में आते हैं, और श्रीआवश्यक सूत्रकी बडी टीका व श्रावकप्रज्ञप्ति टीकामें सामायिक करने संबंधी प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करनेका पाठ मौजूद होने परभी महानिशीथ, दशवैकालिक चूलिकाकी टीका के भिन्न २ अपेक्षावाले अधूरे २ पाठों. का उलटा २ अर्थकरके शास्त्रकारो के अभिप्रायविरुद्ध होकर सामायिक में प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेसे ऊपर के शास्त्रपाठों और इन्हीं शास्त्रोंके करनेवाले श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजके वचनोंमें एकही विषय संबंधी आपस में पूर्वापर विसंवादरूप दूषणआता है, मगर इन्हीं शास्त्रपाठों में व इन्हीं महाराज के कथनमें किसी प्रकार से भी कभी विसंवादका दूषण नहीं आ सकता. यह तो सामायिक में प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंतेका स्थापन करने के आग्रह करनेवालोंकीही पूर्ण अज्ञानता है, कि ऐसे अविसंवादी आप्त For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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