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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१०९] - ४२- औरभी देखो खूब विचारकरो-शास्त्रों में विसंवादी कयन करनेवालोंको मिथ्यात्वी कहेहैं, और जैनाचार्य तो अविसंवादाहोतेहैं. इसलिये श्रीनवांगीवृत्तिकारक यह महाराजभी विसंवादीनहींथे. किंतु अविसंवादीथे, इसलिये इन्हीं महाराजके बनाये वृत्ति-प्रकरणादि अनेक शास्त्रों से एकही विषयमें पूर्वीपर विरोधी विसंवादी वाक्य किसीभी ग्रंथमें किसी जगहभी देखनेमें नहीं आते, इसलिये इन महाराजकी बनाई सामाचारी भी विसंवादी वाक्य नहींहैं, किंतु 'पंचाशकसूत्रवृत्तिके अनुसार प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करने का पाठथा, उसको उडा करके इन महाराजके सत्य कथनके पूर्वापर विरोधी विसंवादीरूप प्रथमइरियावही पीछेकरेमिभंतेकहनेका पा. ठबनाकर भोलेजीवोंको बतलाकर खोटी प्ररूपणा करनेवालोंकी बडी भारीभूलहै. यह महाराज तो विसंवादी कथन करनेवाले कभी नहीं. ठहरसकते,मगर ऐसे महापुरुषों के नामसे झूठापाठ बनानेवालेही मिथ्यात्वीठहरते हैं। अबपाठकगणसे मैराइतनाहीकहनाहै,कि-नवांनीवृ. त्तिकारकने या उन्होंकेशिष्योने अथवा अन्यकिसीभी जिनाशाकेआराधक पूर्वाचार्य महाराजने किसीभी ग्रंथमें सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते किसी जगहभी नहीं लिखी, व्यर्थ भोले जीवोंको भरमानेका काम करना आस्मार्थियोंकों योग्य नहीं है। ४३-कितनेक श्रीउत्तराध्ययनसूत्रकी बडी टीकाके नामसे सा. मायिक प्रथमइरियावही पीछेकरेमिभंते करनेका ठहरातेहैं,सोभीप्रत्यक्ष मिथ्याहै.क्योंकि देखो उत्तराध्ययन सूत्र में या इनकी बडी टीका सामायिक करनेसंबंधी प्रथमइरियावही पीछेकरेमिभंते करनेका कुछभी अधिकारनहींहै.किंतु-२९वें अध्ययनमें "सामाइएणं भंते ! जीवे किंजणेइ ? सावजजोग विरई जणयइ ॥ चउवीसथएणं भंते ! जीवें किं जणेइ ? दंसण विसोहिं जणइ ॥ व्याख्या-'सामायिकेन' उक्तरूपेण सहावद्येन वर्तत इति सा. वद्या:-कर्मबंधनहेतवो योगा-व्यापारास्तेभ्यो विरतिः-उपरमः सावद्ययोगविरतिस्तां जनयति, तद्विरति सहितस्यैव सामायिक संभ. वात्, न चैवं तुल्यकालत्वेनानयोः कार्यकारण भावासंभव इति वाच्यं, केषुचित्तुल्यकालेष्वपि वृक्षच्छायादिवत्कार्यकारण भावदर्शनाद्, एवं सर्वत्रभावनीयं ॥ सामायिकं च प्रतिपत्तुकामेन तत्प्रणेतारःस्तोतव्याः ते च तत्त्वतस्तीर्थकृत एवेति,तत्सूत्रमाह 'चतुर्विंशतिस्तवेन' एतदव. सर्पिणी प्रभवतीर्थकदुत्कीर्तनात्मकन दर्शनं सम्यक्त्वं तस्यविशुद्धि For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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