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[ ३५६ ] वृथाही आपसमें झगड़ा बढ़ानेके लिये 'पर्युषणा विचारनामा' पुस्तक प्रगट कराई जिसमें दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करने वालों पर खूबही आक्षेपरूप अनुचित शब्द लिख करके भी आप निर्दूषण बनना चाहते हैं सो कदापि नहीं हो सकते है क्योंकि पर्युषणा विचारके लेखमें सत्यबातको मानने वालोंकी झूठी निन्दा करके वृथाही अपनी मतिकल्पनासे मिथ्या दूषण लगाये है और उत्सूत्र भाषणोंसे बालजीवों को भी मिथ्यात्वमें फँसाये हैं इसलिये ऊपरकी इन बातों के दोषाधिकारी तो सातवें महाशयजी प्रत्यक्षही दिखते हैं यदि सातवें महाशयजीको अपरकी बातोंके दूषणांसें संसार वृद्धिका भय होवे और आत्मकल्याणकी इच्छा होवे तो अबसें भी झगड़ेके कायोंमें न फँसके इस ग्रन्थको संपूर्ण पढ़ करके सत्यबातको ग्रहण करें और पर्युषणा विचारके लेखकी अपनी भूलोंकी क्षमापूर्वक मिथ्या दुष्कृत सहित आलोचना लेवें तो सातवें महाशयजीको शुभ इरादेसे उत्तम रीतिका उपदेश करनेवाले तथा उत्सूत्र भाषणका भय रखनेवाले समझने में आवेंगे इतने पर भी सातवें महाशयजी पर्युषणा विचारके लेखांको अपने दिल में सत्य समझते होवें तो श्रीकाशीमें मध्यस्थ विद्वानोंके समक्ष ( पर्युषणा विचारके लेखांको ) शास्त्रोंके प्रमाण सहित युक्तिपूर्वक सत्य करके दिखावे अन्यथा कदाग्रहसे सत्यबातोंको छोड़ करके कल्पित बातोंको स्थापन करने में तो संसार वृद्धिके सिवाय और क्या लाभ होगा सो सज्जन पुरुष स्वयं विचार लेवें ;---
और उत्तम रीतिसे दबा करनेके भरोसे विश्वासघात
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