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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३५५ ] भ्रममें फँसाने वाले होने में उन्होंमें भावदयाका सो सम्भवही मही हो सकता है किन्तु संसार वृद्धिकी हेतुभूत भावहिंसाका कारण तो प्रत्यक्ष दिखता है। ____ और सातवें महाशयजीने सिद्धान्तानुसार परोपकार दृष्टिसें पर्युषणा विचार नहीं लिखा है किन्तु पञ्चाङ्गीके सिद्धान्तोंके विरुद्ध बालजीवोंको श्रीजिनाज्ञाकी शुद्ध अवारूप सम्यक्त्वरत्न से भ्रष्ट करनेको उत्सूत्र भाषणोंका संग्रह करके अपने कदाग्रहकी कल्पित बात जमानेके आग्रह से पर्युषणा विचारके लेखमें पर्युषणा सम्बन्धी श्रीजैनशास्त्रोंके तात्पर्य्यकों समझे बिना अज्ञताके कारणसे कुतोंकाही प्रकाश किया है सो तो मेरा सब लेख पढ़नेसे निष्पक्षपाती सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे ;-- __और आगे फिर भी सातवें महाशयजीने पर्युषणा विचारके तीसरे पृष्ठकी आदिसे 9 वीं पंक्ति तक लिखा है कि ( उत्तम रीतिसें उपदेश करते हुए यदि किसीको राग द्वेषकी प्रणति हो तो लेखक दोषका भागी नही है क्योंकि उत्तम रीतिसे दवा करने पर भी यदि रोगीके रोगको शान्ति महो और मृत्यु हो जाय तो वैद्यके सिर हत्याका पाप नहीं है परिणाममें बन्ध, क्रियासे कर्म, उपयोग, धर्म, इस न्यायानुसार लेखकका आशय शुभ है तो फल शुभ है) रूपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि हे सज्जन पुरुषों सातवे महाशयजीकी बालजीवों को मिथ्यात्वमें फंसाने वाली मायावृत्तिकी चातुराईका नमूना तो देखो-आप अपने कदाग्रहके पक्षपातसे श्रीजैनशासनकी उन्नतिके कार्यों में विघ्नकारक संपको मष्ट करके For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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