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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [८१] पं आना जाना करतेहै, मगर सभा करनेको खडे होते नहीं ३,सभाम सत्यग्रहण करनेकी प्रतिज्ञाभी करते नहीं ४, झूठे पक्षवाले को क्या प्रायश्चित्त देना सो भी स्वीकार करते नहीं ५, और श्रीकच्छीजैन एसोसीयन सभाकी विनतीसेभी सभा करनेको आप आते नहीं ६, और लेखीत व्यहारसेभी शास्त्रार्थ शुरु किया नहीं, ७, इसलिये आपकी हार समजी गई, महाशयजी! ९ महीनोंसे शास्त्रार्थ करने के लिये आपसे लिखता हूं, मगर आपतो आडी २ बातें बीच में लाकर शास्त्रार्थ करनेसे दूरहीभटकतेहैं, फिर हारमेक्या कसररही. जबतक दूसरी आड छोडकर शास्त्रार्थकरनेको सामने न आवोगे तबतकही आपकी कमजोरी समझी जावेगी.अभीभी अपनी हार आपको स्वीकार न करना हो,तो, थाणा छोडकर आगे पधारना नहीं, शास्त्रार्थ करनेको जलदी पधारो. कंठशोष-सुष्क विवाद व वितंडवादसे कागजकाले करनेकी व कालक्षेप करनेकी और व्यर्थ श्रावकोंके पैसे बरबाद करवानेकी कोई जरूरत नहीं है। २-. "शास्त्रार्थ आपका और मैरा है, इसमें मुंबईके सब संघ को व आगेवानोंको बीचमें लानेकी कोई जरूरत नहीं है,आप संघ. को बीचमें लानेका लिखो या कहो यही आपकी कमजोरीहै, न सब संघ बीचमें पडे और न हमारी [न्यायरत्नजीकी ] पोल खुले, ऐसी कपटता छोडो" इसतरहसे विज्ञापन नं०९वे के मरे पूरे सब लेख को आपने छोडदिया और मेरे अभिप्राय विरुद्ध होकर आप लिख. तेहैं, कि "शास्त्रार्थ करना और फिर जैन संघकी जरूरत नहीं यह कैसे बन सकेगा" महाशयजी ! यह आपका लिखना सर्वथा अर्थ. का अनर्थ करनाहै,कौन कहताहै जैन संघकी जरूरत नहीं है, मैरे ले. खका आभिप्राय तो सिर्फ इतनाहीहै, कि-मुंबईमें सबगच्छोका,सब देशीका, व सब न्यातोका अलग २ संघ समुदाय होनेसे सब संघ भापके और हमारे शास्त्रार्थ के बीच में पंचरूपसे आगवान नहीं होस. कता, मगर सत्यासत्यकी परीक्षाके इच्छावालोको सभामें आनकी मनाई नहीं, सभामें आना व सत्य ग्रहण करना मुंबईके संघको तो क्या मगर अन्यत्रकेभी सब संघको अधिकारहै, और इतनी बडी सभामें हजारों भादमियों के बीच में पक्षपाती व अल्प विचार वाले कोई भी किसी तरहका बखेडा खडाकरदेवे, या अपना निजका द्वेषसे भापसमें गडबड करदेवे,तो मुंबईके संघको व आगेवानोंको सुरतके झगडेकी तरह कर्मकथा, धनहानी, शासनहिलना व कुसुंप वगैरह For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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