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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४८ ] सोभी मपहाररूप दूसरे च्यवनकल्याणकके और राज्याभिषेक के, भावार्थको समझे बिना व्यर्थही यह सोलहवीभी बडी भूल की है । १७- जैसे श्रीमल्लीनाथस्वामी स्त्रीत्वपनेमें तीर्थकर उत्पन्न हुए हैं. सो विशेषताले प्रसिद्ध ही है, तो भी चौवश तीर्थंकर महाराजोंकी अपेक्षा से सामान्यता से श्रीमल्लीनाथ स्वामीको भी पुरुषत्वपनेमें कहमें आते हैं. मगर उसमें सामान्य विशेष संबंधी अपेक्षाकी भिन्नता दोवेसे इनबातके आपस में कोई तरह का विरोधभाव नहीं आ सकता है, तैसेही - श्रीमहावीरस्वामीकेभी विशेषता से छ कल्याणक आचारांग, स्थानांग, कल्पसूत्रादि आगमों में कहे हैं, तो भी अतित, अनागत, और वर्तमान काल संबंधी भरतक्षेत्र के तथा ऐरवर्त क्षेत्रके सर्व तीर्थकर महाराजों की अपेक्षासे सामान्यताले श्रीमहावीर स्वामीकेभी पांच कल्याणक 'पंचाशक सूत्रवृत्ति' में कहे हैं, मगर उनमें सामान्य विशेष अपेक्षाकी भिन्नता होनेसे इनके आपस में कोई तरहका विरोध भाव कभी नहीं आ सकता है, तो भी आचारांग, स्थानांगादि आगमोके छ कल्याणको संबंधी विशेषता के और 'पंचाशक' के पांच क ल्याणको संबंधी सामान्यता के अभिप्राय को समझे बिनाही सामान्य पांच कल्याणकों संबंधी पूर्वापर संबंध बिनाका अधूरापाठ अल्पक्ष भोलेजीवों को बतलाकर आगमोंमें विशेषतापूर्वक छ कल्याणक कहे हैं, उन्होंका निषेध करनेके लिये आग्रह किया है, सो भी अज्ञानता जनक सर्वथा अनुचित यह सत्तरहवी भी बडी भूलकी है । १८- आचारांग, स्थानांगादि मूल आगमों में च्यवनादि अलग २३ कल्याणक खुलासा पूर्वक बतलायें हैं, और उन्होंकी टीकाओं में भी व्यवनादि कल्याणक अर्थकी सूचना करनेवाले पर्याय वाचक च्यवनादिछ स्थान बतलायें हैं. उनका तत्त्वदृष्टिसे भावार्थ समझे बिनाही व्यवनादिकोंकों वस्तु या स्थान कहकर कल्याणकपनेका सर्वथा निषेध किया, सोभी अतीव गहनाशयवाले आगमोंके भावार्थका अज्ञानपना होनेसे यहभी अठारहवी बडी भूलकी है । १९ - आषाढ शुदी ६ को भगवान् देवानन्दामासाकी कुक्षिमै आ बे, सो नीच कर्म विपाकका उदयरूप है, उसीकोही शास्त्रका - रोने आश्वर्यरूप अच्छेरा कहा है, तोभी उनको प्रथम च्यवनकल्याणक मानते हैं. और गोत्रका कर्मविपाक क्षय हुए बाद पीछे उंचगौत्र के कर्म विपाकका उदय होनेसे आसोज वदी १३ को त्रिशला माताकी कुक्षिमें उत्तम कुलमें भगवान् पधारे हैं तब अनादि कालकी मर्या For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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