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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४९) दामुजब तीर्थंकरमहाराजोंकी माताओंके गर्भमे तीर्थकरउत्पन्न होनेकी सूचना करानेवाले १४ महास्वप्न देखनेकी तरहही त्रिशलामातानेभी१४महास्वप्न आकाशसे उत्तरतेहुए देखे हैं,इसलिये यहतो दूसरा च्यवनरूप कल्याणकपना प्रत्यक्षमेही सिद्ध है। उन्हींको नीच गौत्रका विपाकरूप और आश्चर्यरूप कहकर कल्याणक पनेका निषेध किया सो यहभी एकोणवीशीभी बडी भूलकी है। २०-जैसे देवलोकसे देवभव संबंधी आयु पूर्ण होनेपर वहांसे च्यवनरूप कारणहोनेसे माताकेगर्भमें उत्पन्न होनेरूप(अवतारलेनेरूप) कल्याणकपनेका कार्यहोताहै, तो भी कारणमें कार्यका उपचार होने से च्यवनकोही कल्याणकपना कहने में आता है. तैसेही-गर्भापहाररूप कारण हानेसे तीर्थकरपने में प्रकट होनेके लिये गर्भसंक्रमणरूप (अवतारलेनेरूप)दूसराच्यवनरूप कल्याणकपनेका कार्यहुआहै.तोभी कारणमें कार्यकाउपचार होनेसे गर्भापहारको कल्याणकपना कहनेमें आताहै.इसलिये उनको गर्भापहार कहो, गर्भसंक्रमण कहो, त्रिशलाकुक्षिमें अवतार लेने का कहो, या दूसरा च्यवनरूप कल्याणक कहो, सबका तात्पर्यार्थसे भावार्थ एकही है.इसलिये इनके आपसमें किसी तरहका विरोधभाव नहींहै.इसप्रकार तीर्थकरपने में प्रकटहोनेकेलिये त्रिशलामाताके गर्भ अवतारलेनेरूप गर्भापहारके अतीव उत्तम कार्यके भावार्थको समझे बिनाही गर्भापहारको आतिनिंदनीक कहते हैं, सो तीर्थकरभगवान् के अवर्णवाद बोलनेरूप ( आशातना करनेरूप) दुर्लभबोधि पनेकी हेतुभूत यहभी वीशवी बडी भूलकी है। २१- जैसे-श्रीआदीश्वर भगवान् १०८ मुनियों के साथ एक स. मयमै अष्टापदपर्वत ऊपर मोक्ष पधारे हैं, उनको आश्चर्यरूप अच्छेरा कहतेहैं,तोभी उन्हीकोही मोक्षकल्याणकभी मानतेहैं, तथा श्रीमल्लीनाथस्वामीके जन्म, दीक्षा, व केवलज्ञानकी उत्पत्ति वगैरह सर्व कार्य स्त्रीत्वपने में हुएहैं,उन्होंको आश्चर्यकारक अच्छेरेकहते हैं, तोभी उन्हों. कोही जन्म, दीक्षादिक कल्याणकभी मानते हैं । तैसेही श्रीमहावीर. स्वामिके गर्भापहारकोभी आश्चर्यकारक अच्छेराकहतेहैं,तो भी उनको दूसरा च्यवनरूप कल्याणकपनाभी मानने में आताहै, उसका आशय समझे बिनाही गर्भापहारको आश्चर्यकहके कल्याणक पनेका निषेध किया सो भी अज्ञानताजनक यह एकवीशवीभी बड़ी भूलकी है. . २२-- जैसे-श्रीसिद्धसेनदीवाकरसूरिजी महाराजने उजयनीनगरी में दबी हुई थीएवंतिपार्श्वनाथजीकी प्राचीनप्रतिमा को फिरसे प्रकट For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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