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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [.४७] हुआ, तथा इन्द्रमहाराजने अवधिज्ञानसे देवानंदामाताके गर्भमें भगवान्को देनेभी नहीं,और नमुत्थुणं वगैरह कुछभीनहींकिया तोभी उन्हींको कल्याणकपना मानते हैं. और कल्पसूत्रमूल तथा उन्हींकी सर्वटीकाआदि अनेकशास्त्रों के अनुसारतो यही सिद्ध होताहै, कि ८२ दिन गये बाद गर्भापहाररूप दूसरे च्यवन कल्याणकके दिनमें आसोज वदी १३ को इन्द्रमहाराजने अवधि शानसे भगवानको देखेहैं, तब हर्षसहित सिंहासनसे नीचे उत्तरकर विधि पूर्वक 'नमुत्थु णं' किया.और हरिणेगमेषि देवको आशा करके त्रिशलामाताकी कुक्षिमे स्थापित करवाये हैं, तब त्रिशलामाताने असोजवदी १३ कीरात्रिको तीर्थकरभगवान्के अवतार लेनेकी सूचना करानेवाले १४ महास्वप्न देखेहैं । और कलिकाल सर्वज्ञ विरुद धारक श्रीहेमचंद्रसूरिजी महा राजने तो 'श्रीत्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित्र' के दशवे पर्वमें श्रीमहावीरस्वामीके चरित्र में लिखा है, कि-गर्भापहारके दिन आसोजवदी १३ को इन्द्रमहाराजका आसन चलायमान होनेसे अवधिशानसे भ. गवान्को देखकर नमस्काररूप'नमुत्थु गं'किया और हरिणेगमेषिदेव द्वारा त्रिशलाके गर्भमें स्थापित करवाये, तव त्रिशलामाताने तीर्थकरभगवान्के अवतार लेनेकी सूचना करानेवाले १४ महास्वप्न दे. खेहै, उसके बाद खास इन्द्रमहाराजने त्रिशलामाताके पास आकर १४ महास्वप्न देखनेसे उनका फल तीर्थकर पुत्र होनेका कहा है, त. था धनद भंडारीको आशा करके देवताओं द्वारा धन धान्यादिकसे सिद्धार्थ राजाके राज्य ऋद्धिकी भंडारादिमें वृद्धि कराई है, इत्यादि अनेक पाते च्यवन कल्याणकपनेकी सिद्धिकरनेवाली प्रत्यक्षमें हुयाहैं । इसलिये इन्हींकोही गर्भापहाररूप दूसरा च्यवन कल्याणक मानते हैं । उसका भावार्थ समझे बिनाही कल्याणकपनेका निषेध करनेकेलिये राज्याभिषेककी बात बीचमें लाते हैं, मगर श्रीऋषभदे. घ भगवान्के राज्याभिषेकमें तो किसीभी कल्याणकपनेके कोई भी लक्षण नहींहै,इसलिये राज्याभिषेकको जन्म दीक्षादि कोईभी कल्याणक नहीं मानसकते हैं, परंतु इस अवसर्पिणी में प्रथम राज्याभिषेक उत्तराषाढा नक्षत्र में इन्द्रमहाराजने किया, और प्रथम राज्यप्रवृत्ति चलाया,उसकी याद गिरिके लिये केवल राज्याभिषेकका नक्षत्र मा. त्रही च्यवनादि कल्याणकोंके साथ बतलायाहै, उसका भावार्थ स. मंझबिनाही उसकोभी कल्याणकपना ठहरानेका आग्रहकरना,या रा. ज्याभिषेकके समान गर्भापहारकोभी कल्याणकपने रहित ठहराना For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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