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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥ॐ॥ श्रीपंचपरमेष्ठिभ्यो नमः प्रथम भागकी भूमिका पहिले इसको अवश्यही पढिये. मांगलिक्यके करनेवाले श्रीस्थंभनपार्श्वनाथ जिनेश्वर भगवान् को नमस्कार करके, श्रीजिनाशाके अभिलाषी सर्व सजन महाशयोंकों निवेदन किया जाता है, कि-जन्म-मरण-रोग-शोक-आधि-व्याधि संयोग-वियोगादि--उपाधियुक्त दुष्तर संसार समुद्र के परिभ्रमणका दुःख निवारण करनेके लिये, आत्महितैषी पुरुषोंको जिनाज्ञानुसार शांतिपूर्वक धर्मकार्य करने चाहिये । जिसमें वर्तमानिक द्रव्य गच्छ परंपरा बहुत समुदायकी देखादेखीकी रूढीको अहितकारी जानकर त्याग करनाचाहिये। और सुधारेके जमानेमें गच्छांतरोंके भेदोंकी भिन्न भिन्न प्रवृत्ति देखकर शंकाशील होकर धर्मकार्यों में शिथिलता कर. नाभी योग्य नहीं है, किंतु 'मैरा सो सच्चा' कााग्रह छोडकरमध्यस्थ बद्धिसे गुणग्राही होकरके सत्यकी परीक्षाकरके उसको अंगीकार करना, यही मनुष्य जन्मकी सफलताका कारण है । यद्यपि खंडनमंडनके विवादमें सत्यासत्यका विचार छोडकर अपनापक्ष स्थापन करने के लिये शुष्कवाद या वितंडावाद करनेवाले आजकल बहुत लोग देखे जाते हैं मगर दूसरेकी सत्यवात अंगीका. र करके अपना असत्य आग्रहको छोडनेवाले बहुतही थोडे देखने में आते हैं. जब दूसरेके पक्षका खंडन करनेके ईरादेसे उद्यम करनेमें आता है, तब उसपक्षवालोंकी अनेक शास्त्रोके प्रमाणसहित युक्तिपूर्वक सत्यबातकोभी छोडकर भोले जीवोंको अपना पक्ष सत्य दिखलाने के लिये शास्त्रोंके आगे पीछेके संबंध वाले सब पाठोको छुपाकरके थोडेसे अधूरे २ पाठ लिखते हैं, तथा शास्त्रकारोंके अभिप्राय वि. रुद्ध उनके अर्थ करते हैं, या शास्त्रीय. बातको झूठी ठहरानेकेलिये कुयुक्तियेभी लगानेमें उद्यम किया जाता है. अथवा विषय संबंध For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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