SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 528
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir करने वालेको मिथ्या दृष्टि महानिहव कहने में कुछ हरजा होवेतो तत्त्वज्ञ पुरुपोंको विचार करना चाहिये। ____ अब अनेक दूषणों के अधिकारी कौंन हैं और जिनाज्ञाके आराधक कौन हैं सो विवेकी पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे ;___और भी आगे पर्युषणा विचारके छट्ठ पृष्ठकी ६ पंक्ति से १८ वी पंक्ति तक लिखा है कि ( वादीकी शङ्का यहाँ यह है कि अधिक मासमें क्या भूख नहीं लगती, और क्या पापका बन्धन नहीं होता, तथा देवपूजादि तथा प्रतिक्रमणादि कृत्य नहीं करना ? इसका उत्तर यह है कि क्षधावेदना, और पापबन्धनमें मास कारण नहीं है, यदि मास निमित्त हो तो नारकी जीवोंको तथा अढाईद्वीपके बाहर रहने वाले तिर्यञ्चोको क्षुधावेदना तथा पापबन्य नहीं होना चाहिये। वहाँ पर मास पक्षादि कुछ भी कालका व्यवहार नहीं है। देवपूजा तथा प्रतिक्रमणादि दिनसे बद्ध है मासबद्ध नहीं है। नित्यकर्मके प्रति अधिक मास हानिकारक नहीं है, जैसे नपुंसक मनुष्य स्त्री के प्रति निष्फल है किन्तु लेना ले जाना आदि गृहकार्यके प्रति निष्फल नहीं है उसी तरह अधिक मासके प्रति जानों) अपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि हे सज्जन पुरुषों सातवे महाशयजीने प्रथम वादीकी तरफसें शङ्का उठा करके उसीका उत्तर देने में खूबही अपनी अन्जता प्रगटकरी है क्योंकि क्षुधा लगना सो तो वेदनी कर्मके उदयसे सर्व जीवोंको होता है और वेदनी कर्म भधिक मासमें भी समय समय में बन्धाता है तथा उदय भी For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy