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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३९५ ] तवृत्तिमें २६, श्रीव्यवहारवृत्तिमें २७, श्रीआवश्यकनियुक्तिमें २८, तथा चूर्णिमें २९, वहद्वत्तिमें ३०, लघुत्तिमें ३१, और श्रीविशेषावश्यकवत्तिय ३२, श्रीकल्पसूत्रमें ३३, तथा श्रीकल्प. सूत्रकी सात व्याख्यायोंमें ४०, श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में ४१, तथा श्रीजम्बूद्वीप प्राप्तिकी पांच व्याख्यायोंमें ४६, श्रीगच्छाचार पयन्नाको वृत्तिमें ४७, श्रीज्योतिष करण्डपयन्नामें ४८, तथा सवृत्ति ४९, श्रीदशाश्रुतस्मान्धसूत्रकी चूर्णिमें ५०, श्रीविधिप्रपामें ५१, श्रीमण्डलप्रकाशमें ५२, सैन प्रश्नमें ५३, और नवतत्त्वकी चार व्याख्यायोंमें ५७, और श्रीतत्त्ववार्थकी वृत्तिऐं ५८, इत्यादि पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रों के प्रमाणोंसे अधिक मातकी गिनती स्वयं सिद्ध है। इसलिये श्रीजिनाज्ञाके आराधक पञ्चाङ्गीकी श्रद्धावाले आत्मार्थी प्राणियोंको तो अधिक मासकी गिनती अवश्यमेव प्रमाण करना चाहिये जिससे कुछ भी दूषण नहीं लग सकता है परन्तु निषेध करने वाले है सो और पञ्चाङ्गी मुजब अधिक मासका प्रमाण करनेवालोंको अपनी कल्पनासे मिथ्या दूषण लगाते हैं सो संसारमें परिभ्रमण करने वाले उत्सूत्र भाषक और अनेक दूषणोंके अधिकारी हो सकते है मो तो पाठकवर्ग भी विचार सकते हैं । और पञ्चाङ्गीके एक अक्षरमात्रको भी प्रमाण न करने वाले को तथा पञ्चाङ्गीके विरुद्ध थोडीसी बातकी भी परूपना करने वालेको मिथ्या दृष्टि निहूव कहते है सो तो प्रमिद्ध बात है तो फिर पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रानुसार अधिक मासकी गिनती सिद्ध होते भी, नही मानने वालेको और इतने पञ्चाङ्गोके शास्त्रोंके प्रमाण विरुद्ध परूपना For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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