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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २१७ ] अब आगे पांचवें महाशय न्यायरत्नजी श्रीशान्तिविजयजीने मानवधर्मसंहिता नामा पुस्तकमें जो पर्युषणा सम्बन्धी लेख अधिक मासको निषेध करनेके लिये लिखा है उसकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हु जिसमें प्रथमतो मानवधर्मसंहिता पुस्तकके पृष्ठ ८०० की पंक्ति १७ वीं से पृष्ठ ८०१ की पंक्ति २१॥ तक जैसा न्यायरत्न जी का लेख है वैमाही नीचे मुजब जानो ; [दो श्रावण होतो भी भादवेमें ही पर्युषणापर्व करना चाहिये, अगर कहा जाय कि-आषाढसुदी १४ चतुर्दशीसें ५० रोज लेना कहा यह कैसे सबुत रहेगा ? जबाब-कल्पसूत्रकी टीकामें पाठ है कि-अधिकमास कालपुरुषकी चूलिका यानी चोटी है, जैसे किसी पुरुषका शरीर उचाईमें नापा जाय तो चोटीकी लंबाई नापी नही जाती, इसी तरह कालपुरुषकी चोटी जो अधिकमास कहा सो गिनती में नही लिया जाता, कल्पसूत्रकी टीकाका पाठ कालचूलेत्यविवक्षणादिनानां पञ्चाशदेव,-अगर लिया जाता हो तो पयुषणा पर्व-दूसरे वर्ष श्रावणमें और इस तरह अधिक महिनों के हिसाबमैं हमेशां उक्त पर्व फिरते हुवे चले जायगें, जैसे मुसल्मानों के ताजिये-हर अधिक मासमें बदलते रहते हैं, दूसरा यह भी दूषण आयगा कि-वर्षभरमें जो तीन चातुमासिक प्रतिक्रमण किये जाते हैं उनमें पञ्चमासिक प्रतिक्रमणपाठ बोलना पड़ेगा, शीतकालमें और उष्णकालमें तो अधिक महिना गिनतीमें नहीं लाना और चौमासेमें गिनती में लाकर श्रावणमें पर्युषणा करना किस न्यायकी बात हुई ? अगर कहा जाय कि-पचास दिनकी गिनती For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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