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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २१९ ] पर्व और मासमें करना यह सिद्धान्तसें भी और लौकिक रीतिमें भी विरुद्ध है) यह न्यायाम्भोनिधिजी का उपरोक्त अपनी पुस्तकके पृष्ठ ९३ की पंक्ति१२ वी तकका लेख है;___ इस उपरके लेखकी विशेष समीक्षा खुलासाके साथ लौकिक और लोकोत्तर दृष्टान्त सहित युक्ति पूर्वक पांचवें महाशय न्यायरत्न जी श्रीशान्तिविजयजीके नामसे और सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामसें करने में आवेगा तथापि संचितसे इस जगह भी करके दिखाता हुं जिसमें प्रथमतो अधिक मासको निषेध करने के लिये न्यायाम्भो. निधिजी तथा इन्होंके परिवारवाले और इन्होंके पक्षधारी एक दो छोड़के हजारों कुयुक्तियां करके बालदृष्टि रागियों को दिखाकर अपने दिल में खुती माने परन्तु जैन शास्त्रोंकी स्थाद्वादशैलीके जानकार आत्मार्थी विद्वान् पुरुषों के आगे एक भी कुयुक्ति नही चल सकती है किन्तु कुयुक्तियांक करने वाले उत्सूत्र भाषणका दूषणके अधिकारी तो अवश्यही होते हैं इस लिये उपरके लेख में न्यायांभोनिधिजीने युक्तियां के नामसे वास्तविकमें कुयुक्तियां दिखा करके अधिक मासको गिनतीमें निषेध करना चाहा सो कदापि नही हो सकता है क्योंकि दीवाली ( दीपोत्सव) और ओलियां यह दोन कार्य जैन शास्त्रों में लोकोत्तर पर्वमे माने हैं सो प्रसिद्ध है तथापि न्यायांभोनिधिजी ओलियांकों लौकिक पर्व लिखते कुछ भी मिथ्या भाषणका भय न किया मालुम होता है, और दीवाली शास्त्रकारोंने कार्तिक मास प्रतिबद्ध कही है सो जगत् प्रसिद्ध है और मारवाड़ पूर्व पञ्जाबादि देशोंके जैनी अच्छी तरहसे जानते हैं और खास न्यायांभोनिधिजी For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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