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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २३८ ] विचार करना चाहिये कि न्यायरत्नजी आप स्वयं दोनु श्रावण मासकी हकीकत जूही जूदी लिखते है फिर गिनतीमें निषेध भी करते है यह तो ऐसे हुवा कि ममजननी वन्ध्या अथवा मम वदने जिल्हा नास्ति, इस तरहसे बाललीलावत् न्यायरत्नजी विद्याके सागर हो करके भी कर दिया हाय अफसोम, अब इस जगह मेरेको लाचार होकर लिखना पड़ता है कि न्यायरत्नीजीकी विद्वत्ताकी चातुराई किम देशके कोणेमें चली गई होगा सो पूर्वापरका विधार विवेक बुद्धिसे किये बिना श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने अधिक मासको गिनतीमें प्रमाण करके तेरह मासका अभिवर्द्धित संवत्सर अनेक सिद्धान्तों में कहा है जिसके उत्थापनका भय न करते उलटा अधिक मासको गिनती करने वालोंको मायावृत्तिसें मिथ्या दूषण लगादिये और फिर आपभी अधिक मासको प्रमाण करके लोगोंमें ज्योतिषशास्त्रके वि. द्वान् भी प्रसिद्ध होते है परन्तु अधिक मासको गिनतीमें करनेवालोंको मिथ्या दूषण लगानेका और पूर्वापर विरोधी विसंवादी रूप मिथ्या वाक्यके फल विपाकका जरा भी भय नही करते है इसलिये जैन शास्त्रानुसार तो दूसरों को मिथ्या दूषण लगानेके और विसंवादी भाषणके कर्मबन्धकी आलोचनाके लिये बिना अथवा भावान्तरमें भोगे बिना छूटना बहुत मुश्किल है सो जैन शास्त्रोंका तात्पर्य के जानकार विवेकी पुरुष स्वयं विचार सकते है और न्यायरत्न जीको भी उत्सूत्र भाषणका भय हो तो न्याय दृष्टि से तत्वार्थको अवश्य ही ग्रहण करना चाहिये ; For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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