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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३] उपस्थित होगया. उसके विषयमें आगे लिखने में आवेगा, मगर इस जगह तो हम केवल पर्युषणा संबंधी थोडासा लिखतेहैं. जैन पंचांगके अनुसार जब वर्ताव करने में आताथा, तब पर्युषणा करनेसंबंधी " अभिवढियमि वीसा, इयरेसु सवीसई मासो" इत्या. दि निशीथ भाष्य,चूर्णि, बृहत्कल्प भाष्य,चूर्णि,वृत्ति, पर्युषणाकल्प नियुक्ति,चूर्णि,वृत्ति वगैरह प्राचीन शास्त्रोंमें खुलासा लिखा है, कि, आषाढ चौमासीसे वर्षाऋतुमें जीवाकुलभूमि होनेसे जीवदयाके लिये मुनियोंको विहार करनेका निषेध और वर्षाकाल में एक स्थानमें ठहरना, उसका नाम पर्युषणाहै । इसलिये जब अधिक महीना होवे तब उसको तेरह [१३] महीनोंका अभिवर्द्धित वर्ष कहते हैं, उस वर्षमें आषाढ चौमासीसे २० वे दिन प्रसिद्ध पर्युषणा करना । और जिस वर्षमें अधिक महीना न होवे, तब उसको १२महीनोंका चंद्रवर्ष कहते हैं, उस वर्षमें आषाढ चौमासीसे ५० वें दिन प्रसिद्धपर्युषणा करना [ वर्षाकालमें रहनेका निश्चय कहना] उसीमेही उ. सीदिन वार्षिक कार्य और उसका उच्छव किया जाता है, यह अनादि नियमहै इसलिये निशीथभाष्य,चूर्णि,पर्युषणा कल्पनियुक्ति,चू. णि, जीवाभिगमसूत्रवृत्ति, धर्मरत्नप्रकरणवृत्ति, कल्पमूत्रमूल और उसकी सर्व टीकाओं में संवच्छरी शब्दकोभी पर्युषणा शब्दसे व्या. ख्यान कियाहै,और प्रसिद्ध पर्युषणाकरनेके दिनसे भिन्न [अलग] वा. र्षिक कार्योंका दिन कोईभी नहीं है, किंतु एकही है, इसीको पर्युषणा पर्व कहो, संवच्छरीपर्व कहो, सांवत्सरिकपर्व कहो या वार्षिकपर्व कहो, सबका तात्पर्य एकही है । और कारणवश " अंतरा विय से कप्पई, नो से कप्पइ तं रयणि उवायणा वित्तए "इत्यादि कल्पसूत्र वगैरह शास्त्र पाठोंके प्रमाणसे आषाढ चौमासीले ५०वें दिन पहिले तो पर्युषणा करना कल्पताहै, मगर ५०वें दिनकी रात्रिकोभी उल्लंघन करके आगे पर्युषणा करना नहीं कल्पताहै और५०वें दिनतक पर्युषणाकरनको ग्रामनगरादि योग्यक्षेत्र न मिलसके तो, जंगलमेभी वृक्ष नीचेभी अवश्यही पर्युषणाकरनाकहाह.और अभिवद्धितवर्षम२०दि. ने तथा चंद्रवर्षमे५०दिने पर्युषणानकर और विहार करें तो "छक्काय जीव विराहणा"इत्यादि स्थानांगसूत्रवृत्तिवगैरह शास्त्रपाठोसे छक्कायके जीवोंकी विराधना करनेवाला. आत्मघाती, संयम और जिना. शाको विराधन करनेवाला कहा है। यह नियम जैन पंचांगानुसार पौष और आषाढ बढताथा तब चलताथा, मगर जबसे जैन पंचांग For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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