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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir । [ ३४० ] और द्रव्य भाव परम्पराका विशेष विस्तार देखनेकी इच्छा होवे तो श्रीखरतरगच्छनायक सुप्रसिद्ध श्रीनवाङ्गी वृत्तिकार श्रीअभयदेवसूरिजीकृत श्रीआगम-अष्टोत्तरी नामा ग्रन्थ 'आत्म-हितोपदेश-नामा पुस्तकमें' गुजराती भाषा सहित श्रीअहमदाबादसे छपके प्रसिद्ध होगया है सो पढ़नेसें अच्छी तरहसे मालूम हो जावेंगा। _ और श्री सर्वज्ञ कथित श्रीजैनशासन अविसंवादी होने में श्रोतीर्थङ्कर भगवानोंके जितने गणधर महाराज होते हैं उतनेही गच्छ कहे जाते हैं उन्ह सबीही गच्छवाले महानुभावोंकी ऐकही परूपना तथा एकही वर्ताव होता है और इस वर्तमान कालमें तो बहुतही गच्छवालोंके आपसमें अनेक तरहके विसंवाद होने. जुदी जुदी परूपना तथा जुदा जुदा वर्ताव है और बहुतष्ठी गच्छवाले अपने अपने गच्छकी परम्परा मुजब धर्मकृत्य करते हुवे आप श्रीजिनाज्ञाके आराधक बनते हैं और दूसरे गच्छवालेको झूठे ठहरा करके निषेध करनेके लिये-राग, द्वेष, निन्दा, ईर्षासे खण्डन मण्डन करके, आपसमें वड़ाही भारी विसंवादसे मिथ्यात्वको वढ़ानेवाला झगड़ा करते हैं इसलिये वर्तमान कालमें अपनी अपनी परम्परापर दृढ़ रहने सम्बन्धी सातवें महाशयजीका लिखना मिथ्यात्वका कारणरूप उत्सूत्र भाषण है क्योंकि अपनी अपनी परम्परा पर आरूढ़ होकर धर्मकृत्य करने वाले सबी गच्छवाले श्री जिनाज्ञाके आराधक हो जायेंगे तो फिर अविसंवादी श्री जैनशासनकी मर्यादा कैसे रहेगा इसलिये वर्तमान कालमें अपने अपने गच्छपरम्पराकी बातोंका पक्षपात म रखते For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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