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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३३९ ] समझेगा तबतक उसीको आत्म कल्याणकारस्ता भी नही मिले गा तो फिर भाव करके श्रीजिनाज्ञा मुजब श्रावकधर्म और साधुधर्म कैसे बनेगा याने निर्मूलता समूलताका विचार छोड़ करके धर्मकृत्योंके करनेवालोंको मोक्ष साधन नही हो सकेगा है क्योंकि उन्हें का धर्मकृत्य तो तत्वातत्वका उपयोगशून्य होजाता है इसलिये आत्मार्थी प्राणियोको निर्मूलता समूलताका विचार करना अवश्यही युक्त है तथापि सातवे महाशयजीने दोनुंका विचार छोड़नेका लिखा हैं सो जैनशास्त्रोंके विरुद्ध होनेसे मिथ्यात्वका कारणरूप उत्सूत्र भाषण है इस बातको तत्वज्ञ पुरुष स्वयं विचार लेवेंगे ; और ( अपनी परम्परा पर आरूढ़ होकर धर्मकृत्योंका करते हैं ) सातवें महाशयजीके इन अक्षरों पर भी मेरेको इतनाही कहना है कि अपनी परम्परापर आरूढ होकर धर्मकृत्यांका करनेका जो आप कहते हो तब तो पर्युषणा विचारके लेखमें आपको दूसरोंका खण्डन करके अपना मण्डन करना भी नहीं बनेगा क्योंकि सबी गच्छवाले अपनी अपनी परम्परापर आरूढ़ होकर धर्मकृत्य करते हैं जिन्हें का खण्डन करके अपना मण्डन करना सो तो प्रत्यक्ष अन्याय कारक वृथा है और परम्परा द्रव्य और भावसें दो प्रकारको शास्त्रकाराने कही है जिसमें पञ्चाङ्गीके प्रमाण रहित वसव से तो गच्छ कदाग्रहको द्रव्य परम्परा संसार वृद्धिकी हेतु भूत होनेसे आत्मार्थियोंको त्यागने योग्य है और पञ्चाङ्गीके प्रमाण सहित वतीव सो भाव परम्परा मोक्षको कारण होनेसें आत्मार्थियोंको प्रमाण करने योग्य हैं For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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