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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१३] ६ - कालचूला शिखररूप है, या चोटीरूप है ? अधिक महीने को निशीथचूर्णि आदि शास्त्रों में शिखररूप कालचूला कहा है और दिनोंकी गिनती में भी लिया है, जिसपर भी कितनेक महाशय दिनोंकी गिनती में निषेध करने के लिये चोटीरूप कहतेहै. और 'जैसे पुरुषके शरीर के मापमें उसकी चोटीकी लंबाईका माप नहीं गिना जाता, तैसेही अधिक महीना कालपुरुषकी चोटीस - मान होने से उसीके ३० दिनोकों प्रमाण गिनती में नहीं लिये जाते' ऐसा दृष्टांत देते हैं, सोभी सर्वथाशास्त्र विरुद्ध है, क्योंकि पुरुषकी उँचाईकी गिनती में उसकी चोटी १-२ हाथलंबी हो तो भी कुछभी गिन ती नहीं लीजाती, उससे उसका प्रमाणभीकुछ नहींबढ सकता, मगर जैसे - देवमंदिरोंके शिखर व पर्वतोंके शिखर प्रत्यक्षपणे उनकी उचाई की गिनती में आते हैं, उसीसे उन्होंकी उंचाईका प्रमाणभी बढजाता है. तैसेही अधिक महीने को कालचूला कहा है, सो शिखररूप होने से गिनती में आता है, उससे उस वर्षका प्रमाणभी १२ महीनोंके २४ पक्षोंके ३५४ दिनोंकी जगह, १३ महीनों के २६ पक्षों के ३८३ दिनोंका होता है, और मास वृद्धि के कारण चंद्र वर्षकी जगह अभिवर्द्धत वर्ष भी कहा जाता है. इसलिये शिखरकी जगह घासरूप चोटी कह करके अधिकमहीने को दिनोंकी गिनती में लेनेका निषेध करना सो " करे माणे अकरे " जमालिकी तरह सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है । ७- अधिक महीना गिनती में न्यूनाधिक है, या बरोबर है ? जैनसिद्धांतों के हिसाब से तो जैसे १२ महीनोंके सर्वदिन धर्मका - योंमें बरोबर है, तैसेही अधिक महीना होने से १३ महिनों के भी सर्वदिन बरोबर ही हैं। इसमें न्यूनाधिक कोई भी महीना नहीं है, और पापी प्राणियों के कर्मों का बंधन होने में व धर्मीजनों के कर्मोकी निर्जरा होनेमें एक समयमात्र भी व्यर्थ खाली नहीं जाता है. और समय, आवलिका, मुहूर्त्त दिन, पक्ष, मास, वर्ष, युग, पल्योपम, सागरोपमादि कालमानमे से १ समयमात्र भी गिनती में कभी नहीं छूटसकता, जिसपर भी धर्म कार्यों में ३० दिनोंकों गिनती में छोड देने का कहते हैं, या अधिक महीने के दिनों को तुच्छही समझते हैं, सो सर्वथा जिनाशा विरुद्ध है. ८ - अधिकमहीना नपुंशक है, या पुरुषोत्तम है ? जैसे- ब्रह्मचारी उत्तम पुरुष समर्थ होनेपरभी परस्त्री प्रति नपुंशक समान होता है, तैसेही - लौकिक रूढीसे विवाह सादीवगैरह For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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