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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २४६ ] खरतर गच्छीय मुनि नाम धारकने भी अपनी मनःकामना पूर्ण न होनेसे, रावणके समान हुँढियांका सरणा लेकर युद्धारंभ करना चाहा है।] पाठकवर्गकों छठे महाशयजी श्रीवल्लभविजयजीके उपर का लेखकी समालोचनारूप समीक्षा करके दिखाता हुं जिसमें प्रथमतो मेरेकों इतना ही कहना उचित हैं कि छठे महाशयजी श्रीवल्लभविजयजी साधु नाम धारक होकर खास आप झगड़े का मूल खड़ा करके दूसरेको दूषित करना और अन्याय कारक माया वृत्तिका मिथ्या भाषणसे आप निर्दूषण बनना चाहते है सो सर्वथा अनुचित हैं क्योंकि प्रथम ही आपने (शास्त्रकारोंकी रीति मूजब श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञानुसार आषाढ़ चौमासीसे पचास दिने श्रावणवृद्विके कारणसे दूमरे श्रावणमें पर्युषणा करनेवालोंकों) आज्ञाभङ्ग का दूषण लगा के जैन पत्रमें छपवा कर प्रगट कराया तब श्रीलश्करसे श्रीबुद्धिसागरजीने आपकों खानगीमें शास्त्रका प्रमाण पूछा था उन्ही को शास्त्रका प्रमाण आप खानगीमें पीछा नहीं लिख सके और अन्यायकी रीतिसें उलटा रस्ता पकड़के खानगीकी वार्ताको प्रसिद्धीमें लाकर कृथा निष्प्रयोजनकी अन्यान्य बातोंको और भङ्गी चमार सूर्पनखा वगैरह अनुचित शब्दोंको लिखके विशेष झगड़ेका मूल खड़ा करके भी आप निर्दूषण बनकर अपने अन्यायको न देखते हुए और शास्त्र के पाठकी बात न्याय रीतिसें पूछने वाले को दूषित ठहराते हुए अपने योग्यता माफक शब्द प्रगट किये याने लौकिकमें कहते हैं कि-जैसी होवे कोठे, वैसी For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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