SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २१८ । निवासी महता पीताम्बरदास हाथीभाईको भेजा था उस पत्रके शाखोंके पाठोंको छोड़करके और छिद्रग्राही हो करके उस पत्रपर द्वेषबुद्धिसैं छठे महाशयजीने वृथाही आक्षेप किया है और उनके साथ कितनीही निष्प्रयोजनकी बातें लिखी है उसीका जबाब आगे (छठे महाशयजीके दूसरे गुजराती भाषाके लेखका जबाब छपेगा) वहां लिखने में आवेंगा ; और आगे फिर भी छठे महाशयजीने लिखा है कि (बनारससे प्रसिद्ध हुवा मुनि धर्मविजयजीके शिष्य मुनि विद्याविजयजीका, पर्युषणा विचार नामा लेख देख लेना ) इसपर भी मेरेको प्रथम इतमाही कहना है कि तीसरे महाशयजी श्रीविनयविजयजीने श्रीमुखबोधिका कृत्तिमें पर्युषणा सम्बन्धी प्रथम अपने लिखे वाक्यार्थको छोड़ करके गच्छ कदाग्रहके हठवादसे उत्सूत्र भाषणका भय न करते अनेक कुतों करी है (जिसका निर्णय इसीही ग्रन्यके पृष्ठ ६८ से १५० तक उपर ही छप चुका है ) उन्ही कुतोंको देखके सातमें महाशयजी श्रीधर्मविजयजी तथा उन्हके शिष्य विद्याविजयजी भी कदाग्रहकी परम्परामें पड़के उत्सूत्र भाषणकेही कुतोंका संग्रह करके, शास्त्रकार महाराजोंके अभिप्रायके विरुद्ध होकरके अधूरे अधूरे पाठ लिखकर भोले जीवोंको मिथ्यात्व में गेरनेके लिये अपना लेख प्रगट करा है (इसका जवाब आगे उपेगा) उसीकोही गुजराती भाषामें जैन पत्रवालेनेभी अपना संसार बढ़ानेके लिये अपने जैन पत्रमें प्रगट करा है और उसी उत्सूत्र भाषणकी कुतकोंको छठे महाशयजी आप भी देखनेका लिखकर उन्हीको पुष्ट For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy