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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १३३ ] सी अधिकमाप्तको गिनतीमें नही लेते हो अर्थात् जो अधिक मास में पाप लगता होवे और क्षधा भी लगती होवे तो अधिकमासको गिनतीमें भी प्रमाण करके मंजूर करणा चाहिये--इत्यादि मतलबसे उपहास करता प्रश्नकार वादीको ठहराकर फिर श्रीविनयविजयजी अपनी विद्वत्ता के जोरसे प्रतिवादी बनके उपर के प्रश्नका उत्तर देने मे लिखते है किमास्वकीय अहिलत्वं प्रगटयत स्त्वमपि अधिक मासे सति त्रयोदशषु मासेषु जातेष्वपि-इत्यादि अर्थात् अधिकमासको क्या काकने भक्षण करलिया तथा क्या तिस अधिकमासमें पापनही लगता है और क्षुधा भी नही लगती है सो गिनतीमे नही लेते हो इत्यादि उपहास करता हुवा तेरा पागलपना प्रगट मत कर क्योंकि-त्वमपि अर्थात् हमारी तरह जिस संवत्सरमें अधिकमास होता है उसी संवत्सरमें तेरहवात होते भी सहवत्सरिक क्षामणे 'बारसरहमासाणं' इत्यादि बोलके अधिकमासको गिनती में अङ्गीकार तु भी नहीं करता है और तैसे ही चौमासी क्षामणेमें भी अधिकमास होने से पांच मासका सद्भाव होते भी 'चउरहमासाणंइत्यादि बोलके अधिकमासकी गिनती नही करता हैं ; अब हम उपरके मतलब की समीक्षा करते हैं कि हे पाठकवर्ग ! भव्यजीवों तुम इन तीनों विद्वान् महाशयों की विद्वत्ताका नमुना तो देखो-प्रथम किस रीतिसे प्रश्न उठाते हैं और फिर उन्तीका उत्तरमें क्या लिखते हैं प्रश्नके समाधानका गन्ध भी उत्तरमें नहीं लाते और और बाते लिख दिखाते हैं क्योंकि उपरोक्त प्रश्नमें अधिक मासको गिनती में नहीं लेते हो तो क्या काकने For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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