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[ ४९ ] और गिनती भी करने योग्य है जिसका कारण शास्त्रोंके प्रमाण सहित दिखाते हैं श्रीजिनदास महत्तराचार्यजी पूर्वधर महाराज कृत श्रीनिशीथ सूत्रकी चूर्णि श्रीमोहनलालजी महाराजके सुरतका ज्ञानभंडारसे आई थी जिसके प्रथम उद्देशेके पृष्ठ २९ में तत्पाठ
इयाणिं चूलेति दारं ॥ णाम ठवणा गाहा णिरकेव गाहा ॥ कंठा ॥ णाम ठवणाउमयाउ दवचूला दुविहा आगमतो णो आगमतोय आगमउ जाणए अणुवउते णो आगमतो जाणय भवसरीरं जाणयभवसरीरवइरित्ता तिधा य दवचूला गाहा पुबई ॥ कंठं॥ पढमो वपदो वधारणे वितिउरु मुव्वये पुवढे जहा संखंमि ॥उदाहरणा ॥ सचित्तचड़ा कुक्कटचूला सा मंसपेसी चेव केवला लोकप्रतिता मीसाचूडा मोरसिहा तस्स मंसपेसीए रोमाणि भवंति अचित्ता चूला मणीकुंतगा वा आदिसद्दाउ सीहकरण पासाद थूभअग्गाणि ॥ दवचूलागता ॥ इदाणि खेत्तचूला सा तिविहा ॥ अह तिरिय उढ्व । गाह॥अह इति अधोलोकः तिरिय इति तिरियलोकः उढ्ढ॥ इति ऊर्द्ध लोकः लोगस्स सद्दो पत्तेगं चूला इति सिहाहोति । भवति । इमाइति प्रत्यक्षो तु शब्दो क्षेत्रावधारणे अहोलोगा दीण पच्छद्धरण जहा संखं उदाहरणा सीमंतग इति सीमंतगो णरगो रयणप्यभाय पुढवीउ पढमो सो अह लोगस्प्त चूला । मंदरोमेरु सो तिरियलोगस्चूलातिक्रान्तत्वात् अहवा तिरिय लोगपति ठियस्त मेरोवरि चत्तालीसंजोयणा चूला सो तिरिय लोगचूला वसद्दी समुच्चये पाय पूरणे वा इसित्ति अप्पभावे पइति प्रायो वृत्याभार इति भारवंतस्स पुरिसस्त गायं पाय सो इसिणयं भवति जाव एवं ठितासा पुढवी
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