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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ८७ ] अपने बनाये ग्रन्थमें लिखना क्या उचित है। कदापि नही और इसी ही श्रीधर्मरत्नप्रकरणके दूसरे भागमें पृष्ठ २४६ की आदिसे पृष्ठ २४७ की आदि तकका लेखमें विसंवादी आदि धाक्य बोलने वालेको जो फलकी प्राप्ति होती है सो दिखाते है यथा अन्यथा भणनमयथार्थजल्पनमादिशब्दाद्वंचक क्रिया दोषोपेक्षाऽसद्भावमैत्री परिग्रहस्तेषु सत्सु श्रावकस्येति भावः-अबोधेर्धर्माप्राप्तीजं मूलकारणं परस्य मिथ्या द्रष्टनियमेन निश्चयेन भवतीति शेषः । ___ तथाहि-श्रावकमेतेषु वर्तमानमालोक्य वक्तारः सम्भधन्ति ॥ धिगस्तु जैन शासनं ? यत्र श्रावकस्य शिष्टजननिन्दितेऽलीकभाषणादौ कुकर्मणि नितिर्नोपदिश्यते ॥ इति निन्दाकरणादमी प्राणिनो जन्मकोटिष्वपि बोधिं न प्राप्नुवन्तीत्यबोधि बीजमिदमुच्यते ततश्चाबोधिबीजाद् भवपरिवद्धिर्भवति तन्निन्दाकारिणस्तन्निमित्तभूतस्य श्रावकस्यापि यदवाचि-शासनस्योपघातेयो-नाभोगेनापि वर्तते सतमिथ्यात्वहेतुत्वादन्येषां प्राणिनामिति ॥१॥ बध्नात्यपि तदेवालं परं संसारकारणं विपाकदारुण घोरं सर्वानर्थ विवर्द्धन ( मिति ) ॥२॥ टीकानो अर्थः-अन्यथा भणन एटले अयथार्थ भाषण आदि शब्द थी वंचक क्रिया दोषोनी उपेक्षा तथा कपट मैत्री लेवी अदोषो होय तो श्रावक बीजा मिथ्या दृष्टि जीवने नक्कीपणे अबोधिनं बीजथइ पड़ेछे एटले के तेथी बीजा धर्मपामी शक्ता नथी । कारणके जे दोषोमां वर्तता श्रावकने जोह तेओ येवबोलेके "जिन शासनने धिक्कार For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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