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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १३६ ] निषेध करनाही नही बनेगा,और जो निषेध को मंजर करोगे तब तो अनेक सूत्र, वत्ति भाष्य, चूर्णि, नियुक्ति, प्रकरणादि अनेक शास्त्रोंके न मानने वाले उत्यापक बनोंगे इसलिये जैसा तुम्हारी आत्माको हितकारी होवें वैसा पक्षपात छोड़कर ग्रहण करना सोही सम्यक्त्वधारी सज्जन पुरुषों को उचित है मेरा तो धर्मबन्धुओंकी प्रीति से हितशिक्षारूप लिखना उचित था सो लिख दिखाया मान्य करना किंवा न करना सो तो आपलोगों की खुसी की बात है ;-- ____ और आगे भी सुनो, तीनों महाशयोंने पाक्षिक क्षामणे अधिक तिथि होते भी “पन्नरसणहंदिवसाणं", ऐसा कहके अधिक तिथि को नहीं गिनता है यह वाक्य लिखा है 'इससे मालुम होता है कि तिथिओंकी हाणी वृद्धि की और पाक्षिक क्षामणा संबंधी जैन शास्त्रकारों का रहस्यके तात्पर्य्यको तीनों महाशयों के समजमें नही आया दिखता है नही तो यह वाक्य कदापि नही लिखते इसका विशेष खुलासा श्रीधर्मविजयजीके नामसे पर्युषणा विचार नामकी छोटीसी पुस्तक की में समीक्षा आगे करूंगा वहाँ अच्छी तरह सैं तिथियों की हाणी वृद्धि संबंधी और पाक्षिक क्षामणा सम्बधी निर्णय लिखने में आवेगा-और नवकल्पि विहारका लिखा सो मासवद्धिके अभावसे नतु पोषादिमास वृद्धि होते भी क्योंकि मासवृद्धि पौष तथा आषाढ़ की प्राचीन कालमें होती थी जब और वर्तनानमें भी वर्षाऋतुके सिवाय मास वृद्धि में अधिक मासकी गिनती करके अवश्यही दशकल्पि विहार होता है यह बात शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक है इस का भी विशेष निर्णय वहाँ ही करने में आवेगा-और For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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