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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ७ ] अब पर्युषण पर्व भी नहीं हो सकते. ऐसा कहनाभी प्रत्यक्ष शास्त्र विरुद्ध है, मुहूर्त्तवाले विवाहादि तो मलमास, अधिकमास, क्षयमास, १३ महिनोंके सिंहस्थ, अधिक तिथि, क्षयतिथि, गुरुशुक्रका अस्त और हरि शयनका चौमासा वगैरह कितनेही, तिथि- वार-नक्षत्र मास वगैरह योगों में नहीं किये जाते, मगर बिना मुहूर्त्तके धर्मकार्य करने में तो किसी समयका निषेध नहीं हो सकता. इसी तरह से पर्युषण पर्व भी अधिकमास में, तथा १३ महीनोंके सिंहस्थ में, और चौमासेमही करने में आते हैं । इसमें अधिकमहीना या कोईभी योग बाधक नहीं हो स कता है. इसका भी विशेष खुलासा पृष्ठ १९३ से २०४ तक देखो. ११- अधिक महीनेको वनस्पतिभी अंगीकार नहीं करती, ऐसा कहनाभी शास्त्र विरुद्ध है, अधिक महीने के ३० दिन तो क्या परंतु १ दिन मात्रभी वनस्पति कभी नहीं छोड सकती, किंतु हरेक समय प्रत्येक दिवसको अंगीकार करती है. इसका भी विशेष खुलासा इसी ही ग्रंथ २०५ से २१० तक देखो इत्यादि मुख्य २ बातों संबंधी शास्त्रीय प्रमाण और युक्तिपूर्वक इस प्रथमभाग में अच्छतिरहसे खुलासापूर्वक लिखने में आया है. और इस ग्रंथको पक्षपात रहित होकर संपूर्ण पढनेवाले सनको सत्यासत्य की परीक्षा स्वयं होसकेगी, इसलिये यहां पर विशे ष लिखने की कोई अवश्यकता नहीं है । इस ग्रंथ कारका उद्देश क्या है ? इस ग्रंथकारका मुख्य उद्देश यही है, कि सबगच्छवाले आपस में हिलमिलकर संपपूर्वक सुखशांतिसे धर्मकार्य हमेशांकरें, मगर पर्यषणा जैसे अतीव उत्तम धार्मिकशांति के दिनों में अधिक महीने के ३० दि नको धर्मकार्यों में गिनतमिले छोड देनेके लिये तपगच्छके कितनेक मुनिमहाराज जो खंडन मंडनका विषय व्याख्यानमें चलाते हैं, सो सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है, और समय केभी प्रतिकूल होनेसे कर्मबंधन, संप व शासनहिलना कराने वाला है. (इसीबातका विषेश निर्णय इसी ग्रंथ में अच्छी तरहसे लिखा गया है ) उसको ( इस ग्रंथ के संपूर्ण वांचे बाद) अवश्यही बंध करना योग्य है. पक्षपात रहित ग्रंथकी रचना. "पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिर्मद्वचनं यस्य, तस्थ कार्यः परिग्रहः ॥ १॥" इत्यादि श्रीहरिभद्रसूरिजी जैसे महापुरुषों के न्यायानुसार पक्षपात रहित होकर आगम पंचांगी सम्मत युक्तिपू For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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