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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४] ४४ - अभीके झूठे आग्रहीजनोंकीमलीन बुद्धि और सम्यक्त्वी मिथ्यात्वीकी परीक्षा. कोईभी वादविवादके विषयकी चर्चा करनेमे पहिले वाले स. म्यक्त्वी आत्मार्थी होतेथे, वो तो तत्त्वार्थकी दृष्टितरफ विचारकरके सत्य बातग्रहण करतेथे और अपना पक्ष छोडने में किसीप्रकारकीभी हानीनहीं समझतेथे.श्रीगौतमस्वामि आदिगणधर महाराजॉकी तरह तथा श्रीसिद्धसेनदोवाकर, श्रीहरिभद्रसूरिजीवगैरह उत्तमपुरुषोंकी तरह. और अभीके झूठे अभिमानी अंतर मिथ्यात्वी हठाग्रही होतेहैं, वो तो शास्त्रोंकी बातको मनमें समझने परभी अभिमानसे सत्यबा. तको ग्रहणकरके अपनाझूठा पक्ष छोडनेमें बडीभारी हानीसमझतेहैं, आनंदसागरजी, शांतिविजयजी वगैरहोंकीतरह ( इसका खुलासा आगे लिखंगा) और शास्त्रोके अभिप्रायविरुद्ध होकर व्यर्थही झूठी २ कुयुक्तिये लगाते हैं, या विषयांतर करके सामनेवालेपर वा उनके समुदायपर विरोधभावको बढानेवाले आक्षेप करने लगजाते हैं । औ. र मुख्यमुइके विवादको छोडकर निंदा ईर्षासे राग, द्वेष करके विरो. धभावसे अपनेको और दूसरोंकोभी कर्मबंधन कराने हेतुभूत बन. तेहैं.मगर झूठे आग्रहसे उत्सूत्रप्ररूपणा करके कुयुक्तियोंसे भोले जी. वोंको उन्मार्गमें गेरनेसे वा राग, द्वेष,निंदा, ईर्षासे विरोधभाव कर नेसे संसार बढनेकाभय नहीं रखते हैं, इसलिये अभीके झूठे आग्रही जनोंकीमलीन बुद्धि कही जाती है.इसीप्रकार पर्युषणा संबंधीमी यह ग्रंथ वांचे बाद अब देखने में आवेगा,कि-५०दिन प्रतिबद्ध पर्युषणांके विषयको छोडकर मासप्रतिबद्ध होली,दीवाली, दशहरा आदिके वि. षयांतर या अंगत आक्षेपकरने में कौन २महाशय अपनेअंतरंग आस्माके कैसेरगुणप्रकाशित करेंगे,सो तत्त्वज्ञजनस्वयं देख लेवेगे. इस. लिये यहांपर अभीसे पहिले विशेषलिखनेकी कोई आवश्यकता नहींहै. ४५-इस ग्रंथ संबंधी लेखकोंकों सूचना. इस ग्रंथपर किसी तरहकाभी लेख लिखने वाले महाशयोंको सू. चना करनेमें आती है, कि-जैसे-मैने इसग्रंथमें सुबोधिका-दीपिका किरणावली वगैरहके विवादवाले प्रत्येक लेखाको पूरेपूरे लिखकर पीछे शास्त्रानुसार व युक्तिपूर्वक उसकी समीक्षामें खुलासा करके बतलाया है, मगर विवादवाली एकभी बातको छोडी नहींहै. वैसे ही इस ग्रंथपर लेख लिखनेवाले आप लोगभी रसग्रंथके प्रत्यक वि. For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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